इन्तज़ार (लघु कथा)

-शबनम शर्मा-

रात गहराती जा रही थी। मेरा मन बहुत घबरा रहा था। मेरी बेटी शाम 4 बजे से यह कहकर गई थी कि वो 2-2) घंटे में वापस आ जायेगी। मैंने उसे अनगिनत फोन कर डाले। फोन मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। ‘अनरिचेबल’ की टोन ने मुझे और भी परेशान कर दिया। आखिर माथे पर हाथ रखकर, थक हार कर, एक पिटे ज्वारी की तरह मैं अपने कमरे में बैठ गई। पर मनगढ़ंत प्रश्नों-उत्तरों का सिलसिला मुझे बार-बार झकझोर रहा था। एक पल भी मुझे एक बरस की तरह लग रहा था।

ज़माना कितना खराब है? लड़की की जात, ऊपर से सर्दियों के दिन, ये दिल्ली जैसा शहर और अकेली लड़की। बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि दरवाजे पर घंटी बजी। मैं बिजली की तरह दरवाज़े की ओर लपकी। दरवाज़ा खोला कि सामने मेरी बेटी हाथ में फूल का गुलदस्ता व कुछ पैकेट, मुस्कान होठों पर लिये खड़ी थी। उसको मुस्कुराता देख मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। मैंने एक जोरदार थप्पड़ उसके मुंह पर मार दिया व लगी बोलने। वह अवाक सी खड़ी सुनती रही। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, पर मैं अपनी पूरी बात कह कर ही चुप हुई। उसने फिर भी मुझे बाँहों में भरा और कहा, ‘‘माँ, तू इतनी परेशान हुई, इसके लिए मुझे माफ़ कर दे। पर सुन, आज जब मैं गई तो रास्ते में मेरा फोन किसी ने निकाल लिया और तू कल वापस जा रही है।

तुझे पता है, मुझे आज पहली पगार मिली थी, मैं तेरे लिये ये तोहफा लेने गई थी, मुझे देर हो गई, तो मैंने अपनी सहेली को बुला लिया, जो अभी दरवाज़े के बाहर ही खड़ी है। माँ, चुप हो जा, शाँत हो जा और देख, खोल इस पैकेट को, कैसा लगा तुझे।’’ इतने में उसकी सहेली भी अन्दर आ गई, बोली, आँटी, ‘‘इसे कुछ पसंद ही नहीं आ रहा था, बार-बार कह रही थी, अम्मा को ऐसी चीज़ दूँगी कि वो खुश हो जायें।’’ मैंने उन दोनों को गले लगा लिया और ताकने लगी शून्य में।

 

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