डालर की दादागिरी को वैश्विक चुनौती

-सनत कुमार जैन-

अमेरिका के पास दुनिया का 18 ट्रिलियन डॉलर बकाया है। जो अमेरिका की जीडीपी का 73 फ़ीसदी है। मुद्रा कोष में 50 फीसदी का पैमाना खतरे का निशान माना जाता है। अमेरिका का स्तर वर्तमान में 73 फ़ीसदी पर पहुंच गया है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था लगातार धीमी पड़ रही है। इससे सारी दुनिया के देशों की चिंता बढ़ गई है। अमेरिकी डॉलर के कारण दुनिया के कई देश वित्तीय संकट में आ जाते हैं। आयात-निर्यात व्यापार का संतुलन बिगड़ जाता है। भुगतान को लेकर बड़े संकट खड़े हो जाते हैं। 1970 के दशक में डालर की तुलना में अन्य देशों की मुद्रा में भारी गिरावट आई थी। जो लगभग 7 वर्षों तक चली थी। 2011 के बाद से डॉलर की मूल्य वृद्धि अन्य देशों की मुद्राओं को लगातार कमजोर बना रही है। जिसके कारण दुनिया के कई देश विदेशी मुद्रा संकट से जूझ रहे हैं।कई देशों की अर्थव्यवस्था, डालर की मूल्य वृद्धि के कारण लड़खड़ा रही है। डालर के कारण कई देश जरूरी चीजों का आयात नहीं कर पा रहे हैं। जिसके कारण उन देशों में अफरा-तफरी का माहौल बन गया है।

 

अमेरिका ने जिस तरह से रूस पर पाबंदी लगाकर रूस को वित्तीय संकट में डाल दिया था। प्रतिबंध का असर रूस के आम नागरिकों को झेलना पड़ा। रूस जैसी महाशक्ति को अमेरिका के प्रतिबंध और डॉलर मैं लेन-देन बंद होने से भारी परेशान हुई। उसके बाद दुनिया के अधिकांश देश भी डालर मुद्रा को लेकर वैकल्पिक उपाय सोचने लगे हैं। दुनिया के कई देशों ने आयात निर्यात के लिए अपने संबंधों के आधार पर उन देशों की मुद्रा स्वीकार करना शुरू कर दी। कुछ प्रतिशत में अन्य मुद्राओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया है। वर्तमान में दुनिया के मुद्रा भंडार में डालर की भागीदारी 59 फ़ीसदी पर पहुंच गई है। 1995 की तुलना में यह सबसे निम्न स्तर है। डॉलर को चुनौती देने के लिए डिजिटल मुद्रा ने भीकुछ समय के लिए अपनी धमक बनाई थी। किंतु विश्वसनीयता नहीं होने के कारण विश्व भर के देश डालर के स्थान पर अन्य मुद्राओं को आयात निर्यात के विकल्प के रूप में देख रहे हैं।

 

रूस और ईरान जैसे देशों ने अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद जिस तरीके से आर्थिक संकट का मुकाबला किया है।डालर मुद्रा के प्रतिबंधों का जवाब अन्य तरीके से देकर उन्होंने अमेरिका को आईना दिखाने का काम किया है। डालर मुद्रा की लगातार मूल्य वृद्धि के कारण अन्य देशों ने भी डालर के मुकाबले अन्य विकल्प अपनाने शुरू कर दिए हैं। जिसके कारण डालर का दबदबा कम होता जा रहा है। अमेरिकी डॉलर के स्थान पर यूरोप, जापान और यूके मुद्रा भी विकल्प के रूप में सामने है। इसी तरह आयात- निर्यात के असंतुलन में अन्य मुद्रा के माध्यम से भुगतान स्वीकार करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जिसके कारण डालर का दबदबा धीरे-धीरे खत्म होता हुआ, दिख रहा है।

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