लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाएं भी बाजारवाद की चपेट में

-सनत जैन-
बाजारवाद का सिद्धांत है, मांग और आपूर्ति, जो वस्तु की कीमत तय करती हैं। गैर जरूरी चीजों को भी बाजार विज्ञापन के माध्यम से प्रचारित करता है। जरूरत पैदा करता है, और मनमानी कीमत वसूल करता है। बाजारवाद के इसी सिद्धांत पर भारत का लोकतंत्र और इससे जुड़ी संवैधानिक संस्थाएं मांग और आपूर्ति के सिद्धांत में काम करने लगी हैं। लोकतंत्र को ढाल बना कर लोकतंत्र का आडंबर बना हुआ है। बाजारवाद में उपभोक्ता ही ठगा जाता है। लोकतंत्र में भारतीय संविधान में आम नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिए गए थे। उन मौलिक अधिकारों से बेदखल करते हुए, बाजारवाद ने अपना सिद्धांत तय कर लिया है। लोकतंत्र की मूल भावना और नागरिकों के मौलिक अधिकार बाजारवाद की भेंट चढ़ रहे हैं।

बुक ब्रांड की चाय, फेयर एंड लवली क्रीम, कॉस्मेटिक एवं भौतिक जरूरतें बाजारवाद की देन है। फेयर एण्ड लबलील क्रीम लगाकर आज तक कोई गोरा नहीं हुआ। फिर भी 50 वर्षों से क्रीम बिक रही है। पिछले 30 वर्षों में भारत की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में बाजारवाद का जो बोल वाला बना था। अब वह राजनीति में भी प्रवेश कर गया है। चुनाव जीते या हार जाएं, अलग बात है। विधायकों और सांसदों को तो खरीदा जा सकता है। संवैधानिक संस्थाओं के लोगों को बाजारबाद के मूल सिद्धांत से प्रभावित किया जा सकता है। बाजारवाद साम दाम दंड भेद की अवधारणा पर आधारित है। भारतीय राजनीति में भी यही साम दाम दंड भेद बाजारवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि है

पिछले वर्षों में जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं द्वारा संविधान की मूल एवं मौलिक अधिकारों की अवहेलना करते हुए सत्ता तंत्र ने मांग एवं पूर्ती के सिद्धांत पर कार्य करना शुरू कर दिया है। उससे भारत के संवैधानिक संस्थाओं की साख घटी है। लोगों में अविश्वास पैदा हुआ है। लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया मतदान है। जनता ही अपने प्रतिनिधि को चुनती है। बहुमत की संख्या बल से सरकार बनती है। बहुमत के आधार पर सरकार कानून बना रही है। भीड़ तंत्र की तरह संसद और विधानसभाओं में बहुमत के आधार पर बिना विचार विमर्श के कानून बन रहे हैं। कोई भी कानून भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन करने की अनुमति विधायिका को नहीं देता है। इसके बाद भी मनमाने कानून बहुमत के आधार पर लागू किए जा रहे हैं।

भारतीय संविधान ने संविधान की मूल भावनाओं के अनुसार नागरिकों के मूल अधिकारों को सुरक्षित रखने का जो दायित्व न्यायपा‎लिका को सर्वोच्चता के साथ सौंपा था। वर्तमान में न्यायपालिका उसमें विफल साबित हो रही है। 1947 से लेकर 2014 तक न्यायपालिका बहुत हदतक स्वतंत्र थी। न्यायपालिका की संविधान पीठ नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षण कर रही थी। न्यायपालिका के आदेशों का पालन, शासन और प्रशासन को करना होता था। न्यायपालिका के ऐसे सैकड़ों न्याय के उदाहरण है। जब उसने सरकार की मनमानी पर रोक लगाने का काम किया था। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट में उप‎स्थित होना पड़ा।

2014 के बाद से न्यायपालिका, सरकार के दबाव में काम करती हुई दिख रही है। न्यायपालिका का दायित्व है, वह नागरिकों और विशेष रूप से सरकार के खिलाफ यदि कोई मामला है। तो उसमें दोनों पक्षों के साथ समानता के साथ व्यवहार करते हुए स्वतंत्र निर्णय लेने का दायित्व है। लेकिन पिछले 8 वर्षों में न्यायपालिका की कार्यप्रणाली स्पष्ट रूप से सरकार के दबाव में काम करती हुई दिख रही है। अब सरकार कानून और नियमों को यहां तक कि जो निर्णय सरकार को लेने चाहिए थे। वह न्यायालय के माध्यम से कराकर न्यायालय की मोहर लगवा लेती है। जिससे आम नागरिक भयभीत और निराश होता जा रहा है। पेगासस मामले में सरकार ने सहयोग नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट सरकार को जांच में शामिल नहीं करा पाई। इस ‎स्थिति में न्यायपालिका की बेबसी स्पष्ट: दिखती है।

केंद्र सरकार ने पारदर्शिता के नाम पर विपक्षी दलों को आर्थिक रुप से कमजोर कर दिया है। चुनावी चंदे की रकम बांड के रूप में सबसे ज्यादा राशि सत्तारूढ़ दल को मिल रही है। चंदा देने वालों का नाम गुप्त रखा जा रहा है। चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल के पक्ष में चुनाव आयोग के निर्णय होते हुए दिख रहे हैं। चुनावों के दौरान राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों से जुड़े हुए लोगों के यहां सीबीआई और ईडी के छापे विपक्षी दलों को कमजोर कर रहे हैं। चंदा देने पर उद्योग पतियों को प्रताड़ित करने की घटनाएं सामयने आ रही हैं। इससे स्पष्ट है कि अब भारत में चुनाव भी बेमेल हो गए हैं। कोई राजनीतिक दल 100 रुपए खर्च कर पा रहा है, और किसी के पास 10 रुपए भी खर्च करने के लिए नहीं है। मीडिया और मतदाता तक विपक्षी दलों की पहुंच ही नहीं हो पा रही है। रही-सही कसर शासन और प्रशासन तंत्र पूरी कर देता है। ऐसी स्थिति में निष्पक्ष चुनाव भी अब संभव नहीं रहे।

भारतीय राजनीति में जिस तरह पैसे का बोलबाला बड़ता ही जा रहा है। संसाधनों के बल पर चुनाव लड़े जा रहे हैं। सरकार की ताकत और मीडिया के एकतरफा समर्थन से चुनाव लड़े हो रहे हैं। उसमें आम नागरिक ही ठगा जा रहा है। आम नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से बाधित किए जा रहे हैं। जो नियम और कानून बन रहे हैं, उनकी संसद में चर्चा भी नहीं होती है। सांसदों और विधायकों को संसद और विधानसभाओं में बोलने का मौंका नहीं मिलता है। सत्र की अवधि लगातार घटती जा रही है। जो सांसद, विधायक अपनी बात सदन में रखना चाहते हैं। उन्हें 2 से 5 मिनिट में अपनी बात रखनी होती है। आम नागरिकों की दैनिक दिनचर्या पर भी सरकार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से पूरी तरह से कब्जा हो गया है। आम नागरिक किसी भी तरह से अपने नियमित खर्चे नहीं जुटा पा रहा है। शासन एवं संस्थाओं के हित में बने एक तरफा कानून उसे आर्थिक रूप से पंगु बना रहे हैं। आम नागरिकों के ऊपर जिस तरह से टैक्स और तरह-तरह की शुल्क लगाए जा रहे हैं। उससे आर्थिक भार बढ़ाने के साथ-साथ पूरी तरह से सरकार की कृपा के ऊपर आश्रित हो गए हैं। इससे नियमित जनजीवन, भारतीय संस्कृति, चिकित्सा-शिक्षा, धार्मिक एवं पारिवारिक गतिविधियां भी बुरी तरह से प्रभावित हो रही हैं।

बिना अर्थ के भारत में रहना नागरिकों के लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है। पिछले 30 वर्षों में बाजारवाद ने जो भौतिक आवश्यकताएं आम नागरिकों की बढ़ाई हैं। उससे आम आदमी के खर्चे कई गुना बढ़ा गए हैं। आम आदमी की आय नहीं बढ़ पा रही है। खर्चे जरूर सुरसा की तरह बढ़ रहे हैं। 30 वर्ष पहले आम नाग‎रिकों के उपर कर्ज नहीं था। उधार लेकर ‎विकास की अवधारणा ने गरीब मजदूरों, ‎किसानों, व्यापा‎रियों, छात्रों को कर्जदार बना ‎दिया है। कर्ज की ‎किश्त भी लोग नहीं चुका पा रहे हैं। न्यायपालिका से कई वर्षों तक न्याय नहीं मिल पा रहा है। महीनों और वर्षों तक लोगों को जेल में बंद रखा जा रहा है। राजतंत्र में जिस तरीके से लोग गुलामों की तरह रहते थे। राजा के खिलाफ बोलना देशद्रोह माना जाता था।

आजादी के 75 वर्ष बाद एक बार फिर राजतंत्र की ओर लोकतंत्र की वापसी होती दिख रही है। बाजारवाद तभी तक कायम है, जब तक लोगों के पास पैसा है। महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक संकट के कारण लोगों को अपने परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा है। भौतिकवाद के कारण जो खर्चे बढ़ गए हैं। जो नई-नई जरूरते बन गई हैं। यदि वह पूरी नहीं हुई तो भूखी- प्यासी और जरूरी सुविधाएं नहीं मिलने से नागरिक भीड़ तंत्र के रूप में सड़कों पर उतर आते हैं। भूख से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती है। जनतंत्र की भीड़ से बड़ी कोई ताकत नहीं होती है। रूस की जार क्रांति, भारत का स्वतंत्रता अंदोलन, यूरोप के कई देशों के वर्तमान हालात, चीन, श्रीलंका, पाकिस्तान इत्यादि देशों की आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी और महंगाई के बाद जो स्थितियां बनी हैं। ऐसी स्थिति में भारतीय लोकतंत्र और सत्ताधा‎रियों की सत्ता, नागरिकों की भागीदारी, नागरिकों के हित से सुरक्षित रहेंगी। सरकारों को यह ध्यान में रखना होगा।

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