दलित आज भी ‘अछूत’

यदि देश की आज़ादी के ‘अमृत महोत्सव’ के बावजूद दलितों को आज भी ‘अछूत’ माना जा रहा है, उन्हें पंचायत में ‘तिरंगा’ फहराने की अनुमति नहीं है, सवर्णों का पानी पीने पर उनकी हत्या की जा सकती है, दलित दूल्हा घोड़े पर बैठकर अपनी शादी की रस्म नहीं निभा सकता, मंदिरों में आज भी प्रवेश वर्जित है, कानून के बावजूद ढेरों वर्जनाएं हैं, तो यह हमारी आज़ादी का शर्मनाक यथार्थ है। ताज़ा घटना राजस्थान के जालौर की है। स्कूल के 9 वर्षीय छात्र को प्यास लगी थी, तो उसने एक मटकी से पानी पी लिया। सवर्ण और अछूत की बंदिशें वह नहीं जानता होगा! एक सवर्ण शिक्षक ने ‘अछूत छात्र’ के पानी पीने पर ही उसे इतना मारा कि अस्पतालों में 23 दिनों के इलाज भी उसे स्वस्थ नहीं कर सके। स्वतंत्रता दिवस से कुछ दिन पहले ही उस दलित बच्चे ने अपने प्राण त्याग दिए। यह है आज़ाद भारत की सामाजिक, नागरिक स्वतंत्रता…! ऐसी घटनाएं हररोज़ अख़बारों में सुर्खियां भी बनती हैं कि दलित को पीट-पीट कर मार डाला। दलित को जि़ंदा ही जला डाला। कुछ दरिंदों ने दलित लडक़ी का सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसकी हत्या कर दी।

देश उप्र के हाथरस और उन्नाव के वीभत्स मामलों को नहीं भूला होगा! हाथरस में दुष्कर्म और हत्या की शिकार कन्या का आधी रात में ही, उसके माता-पिता की जानकारी और अनुमति के बिना, मिट्टी का तेल डाल कर अंतिम संस्कार कर दिया गया था। खौफनाक और अमानवीय..! देश के संविधान ने ‘अस्पृश्यता’ को समाप्त ही कर दिया था। ऐसे प्रावधान रखे गए और उसे ‘दंडनीय अपराध’ घोषित किया गया। संसद ने ‘अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 को पारित किया। 1976 में उसमें संशोधन किया गया। बाद में नामकरण बदल कर ‘नागरिक अधिकार संरक्षण कानून, 1955’ किया गया। यदि कोई, किसी के प्रति, किसी भी प्रकार की ‘अछूत’ भावना रखता है और उसे प्रदर्शित भी करता है, तो जेल की सलाखें तैयार हैं। जेल की अवधि भी बढ़ा दी गई।

अनुसूचित जाति ज्यादती अधिनियम भी बनाया गया, लेकिन उसके तहत करीब 96.5 फीसदी मामले लंबित हैं, अधर में लटके हैं। यह सरकारी आंकड़ों का ही सच है। राज्य सरकारें गंभीरता से इस कानून को लागू ही नहीं करतीं। जालौर वाले केस पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की टिप्पणी थी कि ऐसी घटनाएं दूसरे राज्यों में भी होती रही हैं। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। गहलोत के बयान पर जब सचिन पायलट ने सख्त बयान दिया, तो सरकार के पांच मंत्री पीडि़त के घर ‘आंसू बहाने’ भेजे गए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 2004 में एक रपट छपी थी, जिसमें उल्लेख किया गया था कि असम, बिहार, उप्र, राजस्थान आदि राज्यों ने विशेष अदालतों का गठन ही नहीं किया था, जबकि कानून के तहत यह अनिवार्य है। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान राज्यों को छोड़ कर किसी भी राज्य ने ‘अस्पृश्यता वाले इलाकों’ को चिह्नित ही नहीं किया है।

जालौर कांड की तरह जाति आधारित ज्यादतियों पर प्राथमिकी दर्ज न करना देश भर में एक सामान्य व्यवस्था है। नतीजतन केस दर्ज कराने के लिए पीडि़त अछूतों को इधर से उधर भागना पड़ता है। देश में दलित कोटे के मंत्री, सांसद, विधायक जरूर हैं। आरक्षण की सुविधा भी है, ताकि दिखावा किया जा सके कि समाज की जातीय और आर्थिक विषमताओं को खत्म करने की कोशिश जारी है। इसके बावजूद 2020 में 855 दलित हत्याएं की गईं, जिनमें से 84 हत्याएं राजस्थान में की गईं। औसतन हर 10 मिनट में दलित पर अपराध या अत्याचार किया जाता है। 2020 में ही दलितों के खिलाफ अपराधों में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। दलित उत्पीडऩ और हत्याओं के सर्वाधिक मामले उप्र में होते हैं। उसके बाद क्रमश: बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश का नंबर है। आज भी पुलिस, न्यायपालिका, संस्थानों और मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है, लेकिन दलितों में शिक्षा का प्रसार हुआ है। वे सरकारी नौकरियों में अच्छे पदों पर भी नियुक्त किए जा रहे हैं। उनमें जागृति आई है, लिहाजा उनकी सामाजिक लड़ाई भी तेज हुई है, लेकिन यह सब कुछ अपर्याप्त है। कमोबेश इस मानवीय पक्ष पर जरूर सोचना चाहिए और यह सरकार की पहली चिंताओं में शामिल होना चाहिए कि सभी समान हैं। कोई भी नागरिक ‘अछूत’ करार नहीं दिया जा सकता। छुआछूत को समाप्त करने के लिए कानूनों का निर्माण ही काफी नहीं है। इसके लिए जनता का जागरूक होना भी उतना ही जरूरी है। समाज में सामाजिक सद्भाव पैदा करने के लिए सामाजिक संगठनों को आंदोलन चलाना चाहिए। 21वीं शताब्दी में भी अगर हम छुआछूत को चला रहे हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। अब वक्त आ गया है कि इस प्रथा को एकदम बंद किया जाए।

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