कांग्रेस का परिवारवाद

-सिद्धार्थ शंकर-

हाल के पांच राज्यों में बुरी हार के बाद लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी कांग्रेस ने परिवारवाद से तौबा करने का फैसला किया है। उदयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर में पार्टी ने फैसला किया है कि अब एक परिवार से केवल एक ही टिकट मिलेगा। जिसे भी टिकट दिया जाए, उसने कम से कम 5 साल पार्टी में काम किया हो। सीधे टिकट नहीं दिया जाए। नए आने वालों नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा। यहां तक सब कुछ ठीक था, नेताओं को परिवारवाद को लेकर गंभीर पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस में इस बदलाव की चर्चा भी शुरू हो गई, मगर बात जब गांधी परिवार पर आई तो उसे इस नियम में छूट दी जाएगी। यह फार्मूला उन पर लागू नहीं होगा। यानी पार्टी पर गांधी परिवार का एकाधिकार पहले की तरह बना रहेगा, दूसरे नेताओं को परिवारवाद का पाठ याद करके ही आगे बढ़ना होगा। इस दोतरफा फैसले से पार्टी वह संकेत दे पाने में विफल रही, जिसकी उम्मीद लगाई गई थी।

यदि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित होने के बाद भी गांधी परिवार विक्टिम कार्ड का सहारा लेकर कांग्रेस को अपने कब्जे में बनाए रखना चाहता है, तो पार्टी के साथ-साथ देश को भी अपनी निजी जागीर समझने की अपनी सामंती मानसिकता के कारण ही। इस मानसिकता का प्रमाण यह है कि चुनाव वाले राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों से तो इस्तीफा देने को कह दिया गया, लेकिन गांधी परिवार अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं-और वह भी तब, जब सारे फैसले उसकी ओर से ही लिए गए। यह देखना दयनीय है कि पार्टी संचालन के तौर-तरीकों से असहमत जी-23 समूह के नेताओं में से कपिल सिब्बल को छोड़कर अन्य किसी ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में आस्था जताना बेहतर समझा। देश के 5 राज्यों के चुनाव में आया जनादेश बिल्कुल स्पष्ट है। मतदाता कांग्रेस से पूरी तरह मुंह फेर चुके हैं। किसी ने सोचा भी न था कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी को ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे। यह सिलसिला 2014 में शुरू हुआ जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने बहुमत से लोकसभा चुनाव जीता।

इतने वर्षों बाद भी खुद को संभाल पाने में कांग्रेस विफल रही। भाजपा कांग्रेस पर परिवारवाद चलाने का आरोप लगाती रही। जी-23 नेताओं ने पहले ही पार्टी नेतृत्व से संकट हल करने को कहा था लेकिन इसे बगावत समझा गया। कांग्रेस हाईकमान यह समझने को तैयार नहीं है कि गांधी-नेहरू के नाम पर वोट मांगने का समय बहुत पीछे छूट गया है। नई पीढ़ी अलग तरीके का दृष्टिकोण रखती है। कांग्रेस को पुन: शक्ति हासिल करनी है तो परिवारवाद को पीछे छोड़कर एकजुटता बढ़ाए। पार्टी संगठन का चुनाव कराए और नए नेतृत्व को उभरने दे। कांग्रेस की हार की एक वजह यह भी है। निचले स्तर पर उत्साह से काम करने वालों की बहुत कमी है। किसी भी पार्टी की हार जीत में यही निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका होती है।

पार्टी कार्यकर्ता को उम्मीद है कि वह अच्छा काम करेगा तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। भाजपा कार्यकर्ता पीएम मोदी को देखकर सोच तो सकता है कि वह भी भाजपा का काम कर एक दिन पीएम बन सकता है। पर कांग्रेस का कार्यकर्ता यह सोच नहीं सकता क्योंकि वह जानता है कि वह कितना भी काम कर लें वह एक पीएम नहीं बन सकता। कांग्रेस में पीएम तो गांधी परिवार का सदस्य ही बन सकता है। भाजपा सत्ता में है, इसलिए वह जानती है कि इसी वजह से उसमें आने वाले दिनों परिवारवाद बढ़ेगा, इससे पहले पार्टी के लिए परिवारवाद गंभीर समस्या हो जाए उसका इलाज पीएम मोदी ने शुरू कर दिया है। जबकि कांग्रेस सहित अन्य दलों में परिवारवाद की बीमारी गंभीर बीमारी बन चुकी है।

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