प्रजातंत्र की क्या पहचान…. गरीब जनता नेता धनवान….?

अमृत महोत्सव पर एक सवाल -

-ओमप्रकाश मेहता-

इन दिनों भारत में हर कहीं आजादी के अमृत महोत्सव की दुंदभी बजाई जा रही है, किंतु क्या कभी हमने इस बात पर आत्ममंथन किया कि आजादी के पिछले 75 सालों में हमने क्या पाया और क्या खोया? हिन्दुस्तान की बेहतरी के जिन सपनों को साकार करने के लिए हमारे देश के असंख्य वीर शहीदों ने अपना जीवन समर्पित किया क्या इन 75 सालों में हम उनके सपनों में रंग भर पाये? क्या आज हमारा देश खुशहाल है? क्या यहां का मतदाता अपनी निजी जिन्दगी में सभी दैनंदिनी समस्याओं से मुक्त है? क्या यहां का शासक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है? क्या अतीत में ’सोने की चिड़िया‘ कहलाने वाला हमारा देश आज भी विश्व के लिए उसी स्वरूप में है?

वास्तव में इन प्रश्नों के सही उत्तर खोजने पर हमें निराशा के साथ हमारे चारों ओर अंधकार ही नजर आता है, क्योंकि आज भी नौ दशक से अधिक उम्र के बुजुर्ग सही कहते नजर आ रहे है कि ”आज से तो हम अंग्रेजों के राज में ही ज्यादा सुखी थे।“ इसका मूल कारण यह है कि पहले अंग्रेजों और उसके पहले मुगल शासकों ने इस देश को लूटा और आज हमारे अपने ही इस देश को नौंच कर खा रहे है, यद्यपि इस विचार के तहत यह पूछा जा सकता है कि इन मौजूदा शासकों को चुनने वालों का कोई दोष नहीं है? बेशक है, इन 75 सालों में यदि कोई अब तक अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति कोई नहीं जाग पाया है तो वह देश का आम नगारिक या मतदाता है, जो आज भी लुभावने व कभी न पूरे होने वाले वादों के चक्रव्यूह में फंस जाता है और अपनी खुशहाली के सपनों के साथ मतदान स्थल पर जाकर वोट डाल आता है और जो वोट पाता है, वह किसी भी राजनीतिक दल का हो, सत्ता प्राप्ति के बाद वह भी लूट-मार के रंग में रंग जाता है और ’अपना घर‘ भरना उसका उद्देश्य हो जाता है।

यद्यपि इस स्थिति में लिए वे भी दोषी है, जिनके हाथों में यह सब रोकने की शक्ति है, हमारे देश की सर्वोच्च न्यायालय इस स्थिति पर कई बार सख्त टिप्पणी कर चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को दोषी ठहरा चुकी है, किंतु जिसकी चमड़ी मोटी हो चुकी हो, उस पर किसी के भी शब्द बाणों का क्या असर होता है? ….और अब तो हद यह हो रही है कि जिन शख्सियतों पर हर तरह के गंभीर अपराधों के न्यायालयों में वर्षों से मामले लम्बित है, जिनके फैसला होने पर आजन्म कारावास तक की सजा हो सकती है वे हमारे प्रजातंत्र के मंदिरों संसद व विधान सभाओं की शोभा बढ़ा रहे है? लोकसभा के 539 सांसदों में से 233 पर विभिन्न अपराधों के न्यायालयों में मामले चल रहे है, इनमें भाजपा के 39 फीसदी व कांग्रेस के 57 प्रतिशत सांसद है।

एडीआर की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के 301 सांसदों का विश्लेषण किया गया जिनमें से 116 सांसदों ने अपने हलफनामें में आपराधिक होना स्वीकार किया, कांग्रेस के 51 में से 29 डीएमके के 23 में से 10 तृणमूल के 22 में से 9 और जदयू के 16 में से 13 सांसदों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज है। ….और जहां तक आर्थिक स्थिति का सवाल है, चंदा प्राप्त कर चुनाव लड़ने वाले नेता जब संसद या विधानसभा की सदस्यता से मुक्त (थोड़े समय के लिए) होते है तो उनके पास आलीशान बंगले और विदेशी कारें होती है। एक सरकारी कर्मचारी जो अपना पूरा जीवन सरकार को समर्पित कर सेवानिवृत्त होता है तो उसके सामने अपने परिवार के भरण-पोषण की चिंता होती है और आज का नेता सिर्फ और सिर्फ पांच सालों में अपनी सात पुश्तों का जीवन संवारने की क्षमता रखता है, यह है हमारे प्रजातंत्र का इतिहास? और यदि हम राजनीतिक दलों की बात करें तो उनके पास अज्ञात स्त्रोतों से प्राप्त इतना धन है कि वे उसे संभाल भी नहीं पा रहे है, चुनाव के समय यह दल चुनावी खर्च के सभी नियम-कानून व बंधन तोड़ देते है, आज एक आम नागरिक आयकर के बंधनों से जकड़ा हुआ है किंतु हमारे आधुनिक भाग्य विधाता व उनके दल सभी तरह के बंधनों से मुक्त है, वास्तव में आजादी इन्हें की मिली है, हमारे देश को नहीं? आज मैंने बहुत दु:खी मन से यह सब वास्तविकता सामने लाने का साहस किया है, किंतु चूंकि मैंने एक प्रजातंत्र के प्रहरी निरपेक्ष पत्रकार के रूप में यह सच देखा और महसूस किया है, वही मैंने आज लिखने की हिम्मत जुटाई है, इसमें मैंने कोई ध्रष्टता की हो तो कृपया क्षमा करें।

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