‘बिना शीर्षक के’

डॉ. सुनील त्रिपाठी निराला भिण्ड
भीड़ थी उन्मादियों की, जो हमें घेरे खड़ी थी।
थे अधिकतर लोग परिचित, घोर विपदा की घड़ी थी।।
कुछ तो ऐसे थे कि जिनसे, राखियां बंधवाईं हमने।
और कुछ ऐसे कि जिनके, साथ में देखे थे सपने।।
कुछ तो रिश्ते में हमारे, दाऊ, चाचा, भाई लगते।
क्या हुआ जो आज सबके सब, हमें कस्साई लगते।।
गोद में जिनने खिलाया, लोग ऐसे भी खड़े थे।
किंतु चेहरे आज उनके, वासनाओं में सने थे।।
भीड़ से कुछ लोग, आगे को बढ़े, हमको दबोचा।
हम उन्हीं की बेटियां हैं, ये किसी ने भी न सोचा।।
काम जिनका रोकना था, इस भयानक गंदगी को।
वो सभी उकसा रहे थे, हाय री किस्मत तो देखो।।
मान-मर्यादा किसी की, आंख में दिखती नहीं थी।
लग रहा मानो कि, उनके घर कोई बेटी नहीं थी।।
उन दरिंदे भेड़ियों ने, वस्त्र सारे फाड़ डाले।
धर दबोचा भेड़ जैसा, अंग सारे नौंच डाले।।
कर रहे थे साथ हमारे, जो दरिंदे मूंह काले।
कुछ हमारे थे पड़ोसी, कुछ पड़ोसी गांव वाले।।
रौंद डाला अस्मिता को, खेल ये चलता रहा था।
भीड़ ने इतना किया, कि वीडियो बनता रहा था।।
पाश्विकता के घिनौने, खेल में सब खो गया है।
सभ्य दुनिया का घिनौना, सच उजागर हो गया है।।
दोषियों को दण्ड देंगे, बात सब दोहराएंगे।
सांत्वना देने वही, सारे मुखौटे आएंगे।।
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