भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्था

-कुमार कृष्णन-

यह भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्था का ज्वलंत उदाहरण ही है कि बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर बन रहे पुल जैसे संवेदनशील निर्माण में इतनी धांधली हुई कि एक दशक से बन रहा हजारों करोड़ का पुल बनने से पहले दो बार टूट गया। एक साल पहले पुल के हिस्से के ध्वस्त होने के बाद भी न तो किसी की जवाबदेही तय की गई और न ही किसी को दंड मिला। विडंबना यह 1710 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत वाले पुल का एक बड़ा हिस्सा फिर ढह गया। यदि यह हादसा पुल पर जारी यातायात के बीच होता तो जनधन की हानि का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस पर तुर्रा यह है कि बिहार सरकार में शामिल दलों की तमाम दलीलें भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने की हो रही हैं। बेतुकी दलील दी जा रही है कि पुल के डिजाइन में खामी के कारण पुल के एक हिस्से को गिराया गया। इससे पहले सार्वजनिक जीवन में किसी ने इस तरह की दलील नहीं सुनी, यह सिर्फ हादसे के बाद लीपापोती की कवायद है। निश्चय ही घटना विचलित करती है कि हजारों लोगों के जीवन से जुड़े सार्वजनिक निर्माण में किस हद तक हेराफेरी और कमीशन बाजी चलती है कि निर्माण पूरा होने से ही पहले ही वह भरभरा कर गिर जाता है। यह भी कि राजनेताओं और ठेकेदारों के लिये आम आदमी की जिंदगी की कीमत क्या है। बीते साल गुजरात में हुए एक पुल हादसे में आपराधिक लापरवाही से बड़ी संख्या में लोगों के डूबकर मरने की घटना से लगता है हमने कोई सबक नहीं लिया। देश में ऐसी कोई स्वतंत्र व अधिकार संपन्न नियामक संस्था नजर नहीं आती तो सार्वजनिक निर्माण में आपराधिक लापरवाही को पकड़कर दोषियों को दंडित करे। घटना निर्माण कार्य से जुड़े जवाबदेह लोगों की नैतिकता पर भी सवाल खड़ा करती है।

भागलपुर में गंगा नदी पर बन रहे पुल के एक हिस्से के धंसने की घटना इन्फ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाती है। सवाल यह भी है कि वर्ष 2014 में बनना शुरू हुआ यह पुल 2023 तक भी क्यों नहीं बन पाया है। जिस पुल को लेकर दावे किये जा रहे थे कि इससे यात्रा का समय कम होगा और संपर्क मार्ग आसान होगा, एक दशक होने पर भी उस पुल का निर्माण न तो पूरा हुआ बल्कि जो बना भी है वह भरभरा कर गिर रहा है। बिहार में इन्फ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट के कामकाज की जो हालत खास्ता है। इस पुल पर काम 2014 में शुरू हुआ था और इसे 2019 तक ही पूरा हो जाना था। मगर, उसके बाद यह समयसीमा चार बार बढ़ाई जा चुकी है। खास बात यह कि इसी पुल का एक अन्य हिस्सा पिछले साल भी धंसा था। इस बार ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि खुद सरकार भी इस घटना पर बंटी हुई दिख रही है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं। मगर उसके बाद उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि इस पुल के निर्माण कार्य में शुरू से गड़बड़ थी, इसके डिजाइन में समस्या थी। इस वजह से सरकार ने आईआईटी-रुड़की से संपर्क किया था और विशेषज्ञों की एक समिति इस मामले को देख रही थी। उनके मुताबिक इस पुल को नए सिरे से बनवाना है और पुल के एक हिस्से का गिराया जाना उसी योजना के तहत की गई कार्रवाई है।

सवाल है कि अगर यह सब सोच-समझे ढंग से हुआ है तो फिर मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश क्यों दिए? जाहिर है, इस पूरे मामले में कुछ न कुछ गफलत है। या तो सरकार के अंदर आपसी संवाद और तालमेल की कमी है या फिर इस मामले की सूचना जारी करने की प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई है। जहां जो भी गड़बड़ हो, सबसे पहले तो सरकार को संवाद की प्रक्रिया दुरुस्त करने पर ध्यान देना होगा। ऐसे संवेदनशील मामलों में सरकारी कामकाज को लेकर इस तरह की तस्वीर सामने आना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि किसी इमर्जेंसी की स्थिति में घातक साबित हो सकता है। मगर पुल बनने का मामला भी सवालों के घेरे से बाहर नहीं हो जाता।

प्रॉजेक्ट पूरा होने में देरी तो एक मसला है ही, जैसा कि उपमुख्यमंत्री की बातों से लगता है अगर विशेषज्ञों की समिति ने इस प्रॉजेक्ट में बुनियादी कमी बताई है तो यह सवाल भी बनता है कि आखिर यह बात प्रॉजेक्ट शुरू होने के नौ साल बाद क्यों सामने आ रही है। जाहिर है, पूरे मामले की ढंग से जांच करवाकर इसकी जिम्मेदारी तय करने और संबंधित व्यक्तियों के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई जल्द से जल्द करने की जरूरत है।

सरकार के बाएं-दाएं हाथ की अलग-अलग टिप्पणी संदेह को और गहरा करती है। निस्संदेह, इससे प्रश्न पैदा होता है कि जब डिजाइन में खामी के चलते पुल के एक हिस्से को गिराया गया तो मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश क्यों दिये? जाहिर है मामले में लीपापोती की जा रही है। निस्संदेह यह दुखद स्थिति है कि सच्चाई पर पर्दा डालकर जनहितों से खिलवाड़ किया जा रहा है।

पुल निर्माण की सीमा का चार बार बढ़ाया जाना बताता है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के यह संभव नहीं हो सकता।तभी बिहार सरकार में शामिल राजनीतिक दल कुतर्कों के जरिये लीपापोती में लगे हैं। निस्संदेह, बार-बार निर्माण की समय अवधि बढ़ाए जाने से उसकी लागत भी बढ़ जाती है और यह पैसा जनता से उगाहे कर के द्वारा ही चुकाया जाता है। सवाल यह भी है कि पुल बनने के बाद यदि ऐसे हादसे होते रहे तो जान-माल की क्षति के लिये कौन जिम्मेदार होगा? या तब भी कोई नया बहाना गढ़कर जिम्मेदारी से बचने का प्रयास किया जायेगा। कायदे से तो सारे मामले की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाकर दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए।

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