आत्महत्या की दर

-सिद्धार्थ शंकर

महानगरों में बढ़ते असुरक्षाबोध, अवसाद, कुंठा और जीवन के प्रति तंगनजरी को लेकर चिंताएं बहुत पहले से प्रकट की जाती रही हैं, पर अब ये स्थितियां भयावह स्तर तक पहुंच गई लगती हैं। इसकी तस्दीक नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट से हो गई है। ताजा रिपोर्ट कह रही है कि भारत में 2021 में कुल एक लाख 64 हजार 033 लोगों मे आत्महत्या की है। ये संख्या साल 2020 में एक लाख 53 हजार 052 थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक, आत्महत्या के मामलों में साल 2021 में 2020 की तुलना में 7.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं, इस साल आत्महत्या की दर में 6.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं। इसके बाद तमिलनाडु का और तीसरे नंबर पर मध्यप्रदेश का नंबर आता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2021 में महाराष्ट्र में 22, 207 सबसे अधिक आत्महत्या की घटनाएं सामने आईं हैं। इसके बाद तमिलनाडु में 18, 925 आत्महत्याएं, मध्य प्रदेश में 14, 965 आत्महत्याएं, पश्चिम बंगाल में 13, 500 आत्महत्याएं और कर्नाटक में 13, 056 आत्महत्या की घटनाएं सामने आईं हैं। ये आंकड़ा कुल आत्महत्याओं का क्रमश: 13.5 प्रतिशत, 11.5 प्रतिशत, 9.1 प्रतिशत, 8.2 प्रतिशत और 8 प्रतिशत है। एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि केवल इन पांच राज्यों में ही देश भर में हुई आत्महत्याओं के 50.4 प्रतिशत मामले दर्ज किए गए हैं। शेष 49.6 प्रतिशत मामले अन्य 23 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों में दर्ज किए गए हैं। वहीं, देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में आत्महत्या के मामलों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम दर्ज की गई है। यूपी में ये प्रतिशत देश भर में आत्महत्या के मामलों का मात्र 3.6 प्रतिशत है। गौरतलब है कि यूपी की जनसंख्या देश की आबादी का 16.9 प्रतिशत है। देश में आत्महत्या की घटनाओं के पीछे पेशेवर या करियर से संबंधित समस्याएं, अलगाव की भावना, दुव्र्यवहार, हिंसा, पारिवारिक समस्याएं, मानसिक विकार, शराब की लत, वित्तीय नुकसान और पुराने दर्द मुख्य कारण हैं। आत्महत्या की प्रवृत्ति अचानक नहीं पनपती। लंबे समय के अवसाद, तनाव, संत्रास अपमान के भय आदि से गुजरने के बाद ही कोई व्यक्ति इस तरफ कदम बढ़ाता है। इसलिए अगर कोई पूरे परिवार के साथ खुदकुशी का फैसला करता है, तो जाहिर है कि साथ के सभी लोग इस प्रक्रिया से गुजर रहे होंगे। जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थितियों से गुजर रहा होता है, तो उसमें आस-पड़ोस, रिश्तेदार, दोस्त, सहकर्मी आदि उसे उनसे बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। मगर हैरानी की बात है कि अब समाज अपनी यह भूमिका क्यों नहीं निभा पा रहा है! इस चिंताजनक स्थिति से निपटने के लिए सरकार के स्तर पर कारगर उपाय जुटाने की दरकार है। खुदकुशी की घटनाओं को लेकर अनेक समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन हो चुके हैं। पर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि लोग मानसिक रूप से इतने कमजोर कैसे होते जा रहे हैं कि संघर्ष के बजाय मामूली विफलता के बाद खुदकुशी को आसान विकल्प के तौर पर चुन लेते हैं। हमारा समाज भी इतना आत्मकेंद्रित कैसे होता गया है कि ऐसे परेशान लोगों को किसी तरह का संबल नहीं दे पाता। आर्थिक तंगी की वजह से जितनी भी आत्महत्याएं होती हैं, उनमें आमतौर पर परिवार पालने के लिए संघर्ष कर रहे लोग होते हैं। उन्हें जीवन की जरूरी चीजें जुटाने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। इन दिनों परिवार का भरण-पोषण, शिक्षा, विवाह आदि जैसी जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाना भी बहुत सारे लोगों के लिए मुश्किल होता गया है। खासकर शहरी जीवन में ये जरूरतें कुछ ज्यादा त्रासद रूप में पेश आती हैं। फिर समाज में आर्थिक असमानता और गलत तरीके से धन कमाने की प्रवृत्ति इस कदर बढ़ी है कि संपन्नता हासिल करने की गलाकाट प्रतियोगिता-सी शुरू हो गई है। फिर आर्थिक विषमता दूर करने की व्यवस्थागत चिंता भी अब दिखाई नहीं देती। ऐसे में सामान्य लोगों के लिए जीवन की दुश्वारियां लगातार बढ़ी हैं। गरीब और गरीब होते गए हैं। यही वजह है कि खुदकुशी की ज्यादातर घटनाएं सीमांत किसानों, छोटे और मझोले कारोबारियों में अधिक दिखाई देती हैं। जब किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी थीं, तब खेती में सुविधाएं बढ़ाने पर जोर दिया गया था, मगर शहरों में रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करने वाले लोगों के लिए जीवन संबंधी सुरक्षा के किसी व्यावहारिक उपाय पर अभी तक गंभीरता से विचार नहीं हुआ है। इस दिशा में संजीदगी से सोचने की जरूरत है।

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