मां…!

-निलेश जोशी “विनायका”-

जब दुनिया में आया था मैं
अपनी मां को ही पाया था
मैं उसकी आंखों का तारा
सबके मन को भाया था।

जब भी मेरी आंख खुली
गोदी का एक सहारा था
उसका कोमल आंचल मुझको
पूरी दुनिया से प्यारा था।

मेरे चेहरे की मुस्कान देख
फूलों सी खिल जाती थी
भूख मुझे जब भी लगती
छाती उसकी मिल जाती थी।

बुरी नजर का काला टीका
हर रोज लगाती रहती थी
घुटनों के बल रेंग रेंग कर
चलना सिखाती रहती थी।

उंगली पकड़ चलना सिखलाती
देख देख मुस्काती थी
मेरी नादानी पर हंसकर
बहुत मुझे समझाती थी।

मेरे रोने पर रो देती
हंसने पर हंस देती थी
मेरे प्रश्नों का उत्तर देती
राह सही दिखला दे दी थी।

सुला सूखे बिस्तर पर मुझको
खुद गीले में सो जाती थी
मुझे सुलाने रात रात भर
खुद जगती रह जाती थी।

अपना जीवन यौवन खोकर
हमको जीवन नव देती है
भगवान कहां है मत ढूंढो
जन्म उसे भी वह देती है।

छिपा लो दर्द चाहे कितना भी
मां उसे पहचान लेती है
हाथ फिरा कर सर पर अपने
पीड़ा अपनी हर जान लेती है।

हर दर्द की दवा मां होती है
डांट पिलाकर गले लगाती
देख अपनी आंखों में आंसू
सीने से अपने लगाती।

होकर शामिल खुशियों में
अपने गम सारे भुला देती है
तप्त दुनिया की तपिश में
आंचल की शीतल छाया देती है।

हिम्मत मुझको देती रहती
विचलित कभी नहीं होती है
तेरी समता अनुपम जग में
तुलना कभी नहीं होती है।

मां ममता की मूरत है
करुणा की किरण होती है
जीवनी शक्ति की सूरत है
अमृत सी तारण होती है।

दया दिखाती है हम पर
चाहे गलती अपनी होती है
जन्नत है चरणों में इसके
मिलती किस्मत जिसकी होती है।

मां का सुंदर रूप सलोना
साक्षात भवानी होती है
झुक जाते भगवान चरणों में
मां की ऐसी कहानी होती है।

अपनेपन का रंग लुटाती
प्रेम का सागर होती है
साया बनकर साथ निभाती
सुख की चादर होती है।

नया-नया यह ज्ञान सिखाती
शिक्षक मेरी बन जाती है
गुस्से से कभी आंख दिखाती
कभी दोस्त बन जाती है।

स्नेह सिक्त ह्रदय से मां
जब मुझे देखती रहती है
तेरी आंखों में खुशियों की
झलक छलकती रहती है।।

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