बैंकों का निजीकरण सभी समस्याओं का समाधान नहीं
-अजीत रानाडे-
यह विचार स्पष्ट रूप से गलत है कि भारत में बैंकिंग की सभी बुराइयों के निराकरण के लिए बैंकों का निजीकरण रामबाण उपाय है। सभी विफलताएं हाई-प्रोफाइल निजी बैंकों की रही हैं। सभी बैंक विफलताओं की शुरूआत 2008 में अमेरिका और पश्चिमी देशों में लेहमैन बैंक के पतन के साथ शुरू हुई और इसके प्रभाव से वैश्विक वित्तीय संकट पैदा हुआ। 1969 में जुलाई के तीसरे सप्ताह में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं थीं। उनमें से एक राष्ट्रीय और दूसरी अंतरराष्ट्रीय घटना है। 20 जुलाई को चंद्रमा पर पहली बार मानव उतरा जो भारतीय समयानुसार रविवार की सुबह लगभग 8 बजे हुई थी। इससे बारह घंटे पहले 19 जुलाई को भारत में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम घोषणा की कि सरकार 14 निजी बैंकों का अधिग्रहण कर रही है जिनमें देश की 85 प्रतिशत राशि जमा है। एक घटना एक तकनीकी सफलता थी जबकि दूसरी ने राजनीतिक दुस्साहस का प्रदर्शन किया। प्रत्येक घटना का दीर्घकालिक प्रभाव था, एक अंतरिक्ष अन्वेषण कार्यक्रम के विकास पर और दूसरा बैंकिंग और वित्त के विकास पर। आइये, बैंक राष्ट्रीयकरण के दीर्घकालिक प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करते हैं। 1969 के बाद से अर्थव्यवस्था 50 गुना बड़ी हो गई है। उस समय उन 14 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास जमा पूंजी 100 करोड़ रुपये भी नहीं थे जबकि आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के पास 100 लाख करोड़ रुपये से अधिक की जमा राशि है। वित्तीय क्षेत्र की गहरी पैठ होना इसकी औपचारिकता और देश के हर कोने में इसका प्रसार अभूतपूर्व रहा है।
53 वर्षों के बाद पीएसबी के साथ जमा राशि का हिस्सा अभी भी 70 प्रतिशत है जो उस दिन राष्ट्रीयकरण के बाद से केवल 15 प्रतिशत की गिरावट बता रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कदम को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गई थी लेकिन जल्दबाजी में बने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने महज छह महीने बाद ही अस्वीकृत कर दिया था। इसलिए अदालत की बाधा को दूर करने के लिए एक संशोधित अध्यादेश पारित करना पड़ा। प्रधानमंत्री ने इस निर्णय से अपार लोकप्रियता और राजनीतिक लाभ प्राप्त किया क्योंकि पिछले बीस वर्षों में सैकड़ों निजी बैंक डूब गए थे। जनता ने सही या गलत तरीके से माना कि उनका पैसा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सुरक्षित था। यह भावना आज तक बनी हुई है। यहां तक कि वर्तमान सरकार ने निजी बैंकों के बजाय पीएसबी पर निर्भरता दिखाई है।
उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री जनधन योजना (जेडीवाई) के 90 प्रतिशत से अधिक, करीब 45 करोड़ खाते पीएसबी द्वारा खोले गये थे। यह दुनिया का सबसे प्रमुख वित्तीय समावेशन अभियान है और इसने जेडीवाई खातों में सरकारी सब्सिडी को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के माध्यम से पहुंचाने में मदद की है। कोविड के दौरान भी ये खाते अमूल्य साबित हुए हैं। उनके पास एक बीमा कवर के साथ-साथ ई खातों से जुड़ी एक ओवरड्राफ्ट सुविधा भी है। छोटे उद्यमों के लिए मुद्रा ऋ ण भी ज्यादातर पीएसबी का एक विशेष डोमेन है। क्रेडिट पक्ष पर भी सरकार की परियोजनाओं के लिए ऋ ण का बड़ा हिस्सा, चाहे वह बंदरगाहों, सड़कों या रेलवे या अन्य बुनियादी ढांचे के प्रयासों में हो, पीएसबी के माध्यम से होता है। इसका ताजा उदाहरण उत्तरप्रदेश का बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे है जिसकी अनुमानित लागत 15 हजार करोड़ है। एक्सप्रेस-वे के लिए पीएसबी के सहायक संघ से लोन उठाया गया है।
बैंक की विफलताओं के मामलों में भी पीएसबी बचाव के लिए आते हैं। यस बैंक को हाल ही में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा वास्तविक रूप से (तकनीकी रूप से नहीं) लिया गया था। कुख्यात ग्लोबल ट्रस्ट बैंक को 2004 में ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने बचाया था। यदि कोई केवल पीएसबी के व्यवसायिक प्रदर्शन को देखता है तो तस्वीर कुछ साफ नहीं आती है। निजी बैंकों की तुलना में पीएसबी के खराब ऋ णों की मात्रा बहुत खराब है। इन्हें गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (नॉन परफार्मिंग एसेट-एनपीए) कहा जाता है। क्रेडिट इन्फॉर्मेशन कंपनी ट्रांसयूनियन सिबिल की एक हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि बैंक का कर्ज जानबूझ कर डुबोने वालों (विलफुल डिफॉल्टर्स) जिनके खिलाफ बैंकों ने कानूनी कार्रवाई शुरू की है, पिछले दस वर्षों में 10 गुना बढ़ गए हैं।
मार्च 2021 तक इन डिफाल्टरों पर 2.4 लाख करोड़ रुपये बकाया थे जिसकी 95 प्रतिशत राशि पीएसबी की थी। यह सार्वजनिक धन की लूट जैसा है। इनमें से 36 लोग ऐसे हैं जिन्होंने 1000 करोड़ से अधिक का कर्ज डुबोया है। वसूली की संभावना बहुत कम है और किसी भी मामले में कानूनी प्रक्रिया लंबी चलने वाली है। सवाल यह है कि क्या इसका तात्पर्य उधारदाताओं की लापरवाही, ऋ णों पर सतर्कता की कमी या किसी राजनीतिक दबाव में उधार देना है? लापरवाही का तर्क भरोसेमंद नहीं है क्योंकि उदाहरण के लिए, इन ऋ णों में से 30 प्रतिशत भारतीय स्टेट बैंक या उसके सहयोगियों द्वारा दिए गए थे जो उधार देने के नियमों, प्रथाओं के उच्च मानकों के कठोर पालन के लिए जाने जाते हैं। ऐसा क्यों है कि निजी क्षेत्र के बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्ति अनुपात कम है? क्या वे ऋ ण की निगरानी में बेहतर हैं? क्या वे सार्वजनिक जमा के बेहतर संरक्षक हैं? क्या वे स्वाभाविक रूप से कम जोखिम लेते हैं? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सामाजिक रूप से वांछनीय लेकिन व्यावसायिक रूप से गैर-आकर्षक उधारकर्ताओं को उधार नहीं देते हैं? या ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें उधार देने के लिए राजनीतिक दबाव का सामना नहीं करना पड़ता है?
यह विचार स्पष्ट रूप से गलत है कि भारत में बैंकिंग की सभी बुराइयों के निराकरण के लिए बैंकों का निजीकरण रामबाण उपाय है। सभी विफलताएं हाई-प्रोफाइल निजी बैंकों की रही हैं। सभी बैंक विफलताओं की शुरूआत 2008 में अमेरिका और पश्चिमी देशों में लेहमैन बैंक के पतन के साथ शुरू हुई और इसके प्रभाव से वैश्विक वित्तीय संकट पैदा हुआ। निश्चित रूप से इस संकट के लिए बैंकों के सार्वजनिक क्षेत्र के स्वामित्व को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए।
2008 के अंत में इंफोसिस जैसी नकदी-समृद्ध कंपनी को सार्वजनिक रूप से घोषणा करनी पड़ी कि वह अपनी नकदी जमा को निजी और विदेशी बैंकों से भारतीय स्टेट बैंक में स्थानांतरित कर रही है और इसके शेयरधारकों या ग्राहकों को घबराना नहीं चाहिए! पीएसबी के लिए सार्वजनिक जमा का सहज स्थानांतरण जमाकर्ताओं के विश्वास को इंगित करती है। हालांकि इस आत्मविश्वास का एक और पक्ष है। यह पक्ष पीएसबी के मालिक यानी भारत सरकार द्वारा एक अंतर्निहित गारंटी के कारण है कि कोई भी बैंक विफल नहीं होगा। इस अमूल्य गारंटी का परिणाम लाभप्रदता में गिरावट हो सकती है। क्या यह उचित है कि सार्वजनिक जमाकर्ता के पास असीमित गारंटी होनी चाहिए कि पीएसबी में उसका पैसा सुरक्षित है? क्या इस गारंटी की ऊपरी सीमा (5 लाख रुपये) नहीं होनी चाहिए जिससे ज्यादा की जमा राशि बैंक विफल होने की स्थिति में खतरे में पड़ेगी? इन और ऐसे कई सवालों के जवाब बैंकिंग सुधारों में निहित हैं जिनमें उनके चलाने में अधिक स्वायत्तता, अधिक वाणिज्यिक अनुकूलन, सामाजिक उद्देश्यों की जिम्मेदारी उठाने का कम बोझ, श्रमशक्ति उत्पादकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करना और जमाकर्ताओं के जोखिम का बेहतर मूल्य निर्धारण शामिल है।
सभी पीएसबी का एकमुश्त और थोक निजीकरण एक गलत कदम होगा जैसा कि हाल ही में नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के वर्तमान सदस्य द्वारा लिखे गए एक पेपर में प्रस्तावित किया गया था। निश्चित रूप से एक मध्य मार्ग निकाला जा सकता है जिसमें सरकारी स्वामित्व के पीएसबी की कार्यशील स्वायत्तता बढ़ाना, जनता के विश्वास को बनाए रखते हुए जमा बीमा की उचित कीमत निर्धारित करते हुए बैंकों के वाणिज्यिक प्रदर्शन को बढ़ाया जाता है। यह 1969 में चंद्रमा-लैंडिंग के विपरीत रॉकेट विज्ञान नहीं है।