सीजेआई की चिंता

-सिद्धार्थ शंकर-

भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना और सर्वोच्च न्यायालय ने जेलों में पड़े विचाराधीन कैदियों की ओर देश का ध्यान खींचा है तथा एक ऐसे मुद्दे को सामने रखा है, जिससे हमारा लोकतंत्र कमजोर होता है, आम नागरिकों की आजादी छिनती है और अधिकतर जांच में जमानत देने की जगह जेल भेजना कायदा बनता जा रहा है। प्रधान न्यायाधीश ने एक संबोधन में रेखांकित किया कि हमारे देश में जेलों में बंद 6.10 लाख नागरिकों में लगभग 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। उन्होंने कहा कि न्याय व्यवस्था में प्रक्रिया ही दंड बन गई है। मनमाने ढंग से गिरफ्तारियों से लेकर जमानत मिलने में मुश्किलों तक की इस प्रक्रिया में लंबे समय तक जेलों में बंद लोगों के इस मामले पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कैदी ब्लैक बॉक्स की तरह हैं। वे ऐसे नागरिक हैं, जिन्हें अक्सर अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है।

प्रधान न्यायाधीश ने ऐसे मुद्दे को उठाया है, जिस पर शायद ही कभी चर्चा होती है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह कोई हाल में आयी अस्थायी गिरावट नहीं है, बल्कि भारतीय व्यवस्था की स्थायी विशेषता बन चुकी है। सजा दिलाने के लिए लंबी जांच की बजाय तुरंत हिरासत में लेने के रवैये से भी न्यायिक व्यवस्था पर दबाव बढ़ता है क्योंकि जमानत की अर्जियों की तादाद बहुत अधिक है। चूंकि हिरासत में लेना आम बात है, तो अग्रिम जमानत के लिए भी बहुत सारे लोग अदालत पहुंचते हैं। इनसे बड़ी अदालतों में बोझ बढ़ता जाता है। इन सबसे ऐसी व्यवस्थागत समस्या पैदा हो गई है, जिसका समाधान जजों की संख्या बढ़ाकर नहीं किया जा सकता है। हम जानते हैं कि हमारे यहां अभियुक्तों को सजा देने की दर बहुत ही कम है। ऐसे में ठोस जांच दरकिनार कर दी जाती है और मुकदमे से पहले लंबे समय तक जेल में रखना ही सजा बना दिया जाता है। इससे न्याय व्यवस्था का आधारभूत सिद्धांत, जिसमें दोष सिद्ध होने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है, ही खारिज हो जाता है।

उच्चतम न्यायालय ने साल 2014 में व्यवस्था दी थी कि उन विचाराधीन आरोपियों को तुरंत जमानत पर रिहा किया जाए जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा का आधा समय बतौर आरोपी जेल में व्यतीत कर लिया है। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि जिला न्यायिक सेवा प्राधिकरण से संबंधित न्यायिक अधिकारी अपने अधिकार-क्षेत्र में प्रत्येक कारावास पर जाकर इस प्रकार के कैदियों की रिहाई के लिए आवश्यक प्रक्रिया की निगरानी करेंगे। इन आदेशों के बाद लंबी अवधि से जेलों में बंद विचाराधीन कैदी रिहा हो सकेंगे। पर उनका क्या होगा, जो थोड़े समय के लिए विचाराधीन कैदी के रूप में जेल भेज दिए जाते हैं। विचाराधीन कैदियों का जेलों में क्या काम? यह पहली बार नहीं है कि लंबे समय से जेलों में बंद आरोपियों के प्रति चिंता व्यक्त की गई हो। वर्ष 2010 में राष्ट्रीय विधिक अभियान के तहत भी विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने का बीड़ा उठाया गया था। पर धरातल पर स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।

आंकड़े जाहिर करते हैं कि लगभग अड़तीस प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को पहले तीन महीने के भीतर जेल से जमानत पर रिहा कर दिया जाता है। लगभग साठ प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को एक वर्ष के अंदर जमानत मिल जाती है। यह समझ से परे है कि जब साठ प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को साल भर के भीतर जमानत पर छोड़ दिया जाता है, तो फिर उन्हें जेल भेजा ही क्यों गया था? उन्हें विचाराधीन कैदी के रूप में कुछ दिनों के लिए जेल भेज कर सबक सिखाना इस प्रकार के कारावास का एकमात्र तर्क दिखाई देता है। पर यह कानून की मूल भावना के विरुद्ध है।

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