पहली बरसात (बांग्ला कहानी)

अमर मित्र

बूढ़े ने कहा, थाना पीरतला…ग्राम हाथीशाला। अब इस कलकत्ते में ही हूं।

पीरतला, हाथीशाला….. किस ओर है? सुप्रिया पूछती है।

यहां से इक्यानवे नंबर बस में जाएं तो भेजहाट सड़क पर हाथीशाला-पीरतला पड़ेगा दीदी। बूढ़े ने कहा।

वह अस्फुट स्वर में पूछती है, तुम्हारा वह पीरतला…. हाथीशाला बहुत ही सुन्दर जगह है क्या?

हां, कह सकती हो, पर गांव में छह माह से अधिक मेरा रहना नहीं होता। चैत्र के शुरू में ही निकलता हूं और लौटते-लौटते वही भादो। कहता हुआ बूढ़ा छाता वाला ठक-ठक छाते की मरम्मत कर रहा था। बुड़बुड़ा रहा था वह, पहले सावन में आना होता था। अब तो खेती भी नहीं रही। खेती में जी नहीं लगता था। इससे तो आपके इस कलकत्ते में गली-गली घूमने में ही भला है।

बरसात तो आ गई अब। सुप्रिया बोली।

कहां आती है अब? छाते वाले ने छाते के स्िप्रंग को परखते हुए कहा।

यह भी सच है। कई दिनों से तो सुन रही हूं। आ ही नहीं रही।

समय होने पर आएगी ही।…. थोड़ा-सा सरसों का तेल देंगी दीदी? लगता है यह छाता कई दिनों से खोला नहीं गया है। जंग लग गई है।

मेरा तो बाहर निकलना ही नहीं होता और जब निकलती हूं तो छाता लेकर नहीं निकलती। एक बार एक नया छाता खो गया था। एक बार बैग से निकाल लिया गया, हालांकि वह मेरे पति का था। अच्छा, यह तो बताओ, छाते इतने क्यों गुम होते हैं?

पंक्तिबद्ध दांतों से हंसते हुए उसने कहा, गुम होना सहज है, इसलिए हो जाते हैं।

मतलब।

सभी चीजें तो गुम नहीं होतीं। छाते पर ध्यान नहीं होता सबका, इसलिए गुम होते हैं।

क्या छाता-चोरों को तुम पहचान लेते हो?

वह हंसता है। एक बार देखा था एक छाता-चोर को। श्याम बाजार की ओर दौड़ा जा रहा था। चैराहे पर किधर जाए, निर्णय नहीं ले पा रहा था।

फिर पकड़ा गया क्या?

बूढ़ा सिर हिलाता है, नहीं, सियालदह की ओर चला गया।

उसके बाद।

उसके बाद और क्या? बूढ़े ने अपना ध्यान छाते पर केंद्रित किया, तेल देंगी…?

देती हूं।

सुप्रिया तेज कदमों से अंदर जाकर छोटी कटोरी में थोड़ा-सा सरसों का तेल लाकर बूढ़े के सामने रखती है। सुप्रिया ने पूछा, हाथीशाला में क्या हाथीसाल था। तुम्हारे वहां क्या कोई राजा था?

शायद था। अस्फुट जवाब देता है छातेवाला।

तुम जानते नहीं?

कैसे जानूंगा, देखा नहीं कभी। वह बुड़बुड़ाया।

वाह रे, बिना राजा के हाथीसाल कैसे हो सकता है। कोई राजमहल नहीं है वहां?

बूढ़ा सिर हिलाता है, नहीं है। ऐसा ही लगता है।

सुप्रिया ने अपने गाल पर हाथ धरा। अजीब तरह की बातें करता है यह छाते वाला। उसे अच्छा लग रहा था। आखिरकार समय तो कट रहा है, नहीं तो क्या करती वह। सुप्रिया धीमे स्वर में पूछती है, हाथीशाला कैसी जगह है, बतलाओगे?

कैसी है… क्या मतलब?

मतलब, समझ लो कहूं, पहाड़….नहीं, नहीं पहाड़ इधर कहां? कलकत्ता के नजदीक ही तो है। कितना समय लगता है?

तकरीबन डेढ़ घंटे।

नदी है क्या?

बूढ़ा कहता है, नदी थी।

थी यानी?

पहले थी, अब नहीं है।

क्या कह रहे हो, ऐसा कभी होता है क्या, नदी भी कभी खत्म होती है?

बूढ़ा अपनी पकी दाढ़ी के बीच से हंसता है।

होती है दीदी… विद्याधरी नदी।

अब नहीं है?

नहीं दीदी, सुना है… थी, मर चुकी है।

सुप्रिया अवाक हुई। आश्चर्यजनक घटना सुन रही है वह। नदी थी, अब नहीं है। उसका मायका जहां है, वहां एक नदी है कृद्वारकेश्वर। बांकुड़ा शहर के साथ। रेत-ही-रेत। जब तक वर्षा नहीं होती, तब तक वह नदी मरुभूमि होती है, पर बरसात में जब पश्चिम का गेरुआ जल द्वारकेश्वर में उतरता है, पहचानी नहीं जाती वह। एक और नदी है कृ गंधेश्वरी। उधर पानी की कमी है। धूप इतनी तेज लेकिन नदी तो खत्म नहीं हुई, मरी नहीं। नदी भी क्या कभी मरती है? नदी, पहाड़ यदि खत्म हो जएं तो धरती पर बचेगा ही क्या?

सुप्रिया बोली, नदी भी मरती है कभी?

वह साधारण हंसी हंसता है। मर ही तो गई है। मैदान जो हो गया है सारा।

तुमने देखी थी वह नदी?

नहीं बेटी, सुना है बस। बुढ़ा गई थी शायद। अब तो चारों ओर मैदान ही मैदान है, सपाट जमीन।

सुप्रिया सोच रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। छाता ठीक कराना है, यह सुप्रिया के दिमाग में था ही नहीं। अचिन के आफिस चले जाने पर एक संकरी बालकनी पर यों ही सड़क जाते लोगों को देखने के लिए खड़ी हुई थी वह। सड़क देखते-देखते समय कट जाता है। कितने तरह के लोग, उनकी वेशभूषा पर कई तरह के बहारें। कितने रंग, कितनी उम्र और कितनी ही तरह के चेहरे। अत्यन्त कम उम्र के लड़के-लड़कियां आपस में आस-पास बातें करते हुए पैदल चले जाते हैं। अंतहीन समय के साथ, अंतहीन सड़क पर। इसी समय चातक की आवाज की तरह बूढ़ा छाते वाला बोल उठाकृ-

छाता ठीक करा लो, छाता…..।

उसने सिर झुकाकर बूढ़े छाते वाले को देखा। बुलाया उसेकृ-छाते वाले….।

बूढ़े ने तब अंदाज से शायद सुप्रिया का चेहरा ढूंढ़ लिया था। उज्ज्वल श्यामवर्ण, नाक में नथ, माथे पर विपुल केशराशि। बरामदे के ग्रिल को पकड़कर वह नीचे की ओर झुकी हुई थी।

छाते वाले…. गली से होकर सीढियों से दो तले में आ जाओ।

आ पहुंचा वह। सुप्रिया ने देखा कि दो छतरियां अध-टूटी पकड़ी हुई थीं। बूढ़ा सावधानी से उनकी मरम्मत कर रहा था। सूई चलाते-चलाते वह बातों का उत्तर दिए जा रहा था।

वाह… ले चलोगे मुझे वहां?

अभी तो जाऊंगा नहीं दीदी। इन दिनों ही तो काम है। कहते-कहते बूढ़ा उठा, पानी पिलाओगी दीदी? धूप कितनी तेज है, नाक-मुंह के जरिए जैसे भीतर घुसी आ रही हो।

पानी दिया सुप्रिया ने। पानी के साथ एक टुकड़ा संदेश नाम की मिठाई, जिसे पाकर बूढ़ा अभिभूत हो उठा। बुड़बुड़ाया, शहर के लोग अच्छे हैं। गांव में ऐसे नहीं मिलते।

सुप्रिया हंसती है, मैं तो यहां की नहीं हूं।

अब तो यहीं हो। शहर के लोगों में दयाभाव है। हां दीदी, यदि पीरतला-हाथीतला जाना हो तो, इसी समय बरसात के पहले।

क्यों, क्या इन दिनों कोई मेला होता है वहां?

हां, लगभग मेले की तरह ही। पीरतला में पीर-स्थान है, वहां जो पीर का पेड़ है, वह बहुत विशाल है। उस पेड़ के ऊपर बरसात के बादल आकर कुछ देर विश्राम करते हैं।

सुप्रिया को आश्चर्य होता है, विश्राम… मतलब?

मतलब कि समुद्र से एक लम्बा सफर तय करके आते हैं। कितनी दूर से आते हैं, कोई ठीक नहीं। विश्राम करते हैं, फिर उसके बाद वर्षा उतरती है उस पेड़ पर।

तुमने देखा है?

देखा है दीदी। लगता है पेड़ पर मेघ-छाया मिलती है कृ- एक विराट छतरी।

उसके बाद क्या होता है?

पेड़ पर वर्षा होती है। पीरतला में वही पहली बरसात। उस बरसात में स्नान करने पर सब रोग दूर हो जाते हैं। कोई बीमारी नहीं रहती। मेरी अपनी ही बीमारी ठीक हुई है दीदी। मरने को था। छाती में जैसे घुन लगा हो। खांसने पर मुंह से खून निकलता। पीर के पेड़ तले नहाने पर वह रोग दूर हुआ। उस बादल की क्या गड़गड़ाहट। इस समय भी कानों में गूंज रही है। बादल जैसे मुझे बुलाकर उस पेड़ के नीचे ले गए।…. अच्छा चलता हूं दीदी।

बूढ़े के चले जाने के बाद सुप्रिया कुछ देर बालकनी पर खड़ी रही। बायीं ओर से बालकनी पर तिरछी धूप आ पड़ी है, कदम्ब के पीछे से सरककर। वह घर के अन्दर जाती है। कुछ भी करने को नहीं है। अब खाओ और सो जाओ। फिर उठो। बालकनी में खड़े होओ, घर के अंदर आओ, टीवी पर किसी एक फिल्म की एक झलक देख फिर से बालकनी में खड़े होओ।

बिस्तर पर लेटे हुए सुप्रिया सोच रही थी कि टेलीफोन पर कहां-कहां बातें करेगी। पीरतला फोन करेगी क्या? पता करेगी कि पेड़ पर बादल आए या नहीं। छाते वाले बूढ़े को पकड़ूंगी, फोन करके बुलाऊंगी। सभी छाते टूट गए हैं, मरम्मत कर जाओ। मृत नदी विद्याधरी की पूरी बातें सुन नहीं पायी हूं, सुनूंगी।

बूढ़ा जब छाता ठीक कर रहा होगा, तब अचानक फोन बज उठेगा। हो सकता है बांकुड़ा से ही फोन आए और मां द्वारकेश्वरी, गंधेश्वरी नदी की खबर दे। वह खबर लेगी कलकत्ते की।….. सुना डोरबेल बज रही है। फिर किसी ने कुंडी खटखटायी, धीरे-धीरे।

कौन आया, अचिन? क्या वे अचानक दोपहर को नहीं आ सकते? अचिन से कहा था कि न हुआ तो दोपहर को मुफ्त में बच्चों को पढ़ाएगी। मुहल्ले के बच्चों के लिए अचिन संपर्क साधे। वे हंसे थे, दिमाग ठीक है? कुछ दिन बाद ही तुम्हारे पेट में कोई आ जाएगा। तब अपने आप व्यस्त हो जाओगी।

सुप्रिया ने कहा था, इससे मुहल्ले के बच्चों को पढ़ाने में कोई असुविधा नहीं होगी।

अचिन जोर से हंसा था, समाज-सेवा करोगी। बच्चे जब कुछ चुरा ले जाएंगे, तब समाज-सेवा की इच्छा भी जाती रहेगी। ये सब बातें बिल्कुल मत सोचो।

आंचल संभालकर केश बांधते-बांधते सुप्रिया दरवाजे के सामने खड़ी हुई। घंटी दुबारा बजती है। दरवाजा अचानक खोल दिया सुप्रिया ने। इस तरह दरवाजा खोलने के लिए कितनी बार मना भी हुआ है। भवानीपुर में छह माह पहले दिनदहाड़े क्या हुआ था? बहू की हत्या कर सब कुछ ले गए थे। सुप्रिया दरवाजा खोलकर आश्चर्यचकित हुई। छाते वाला बूढ़ा सामने था।

सो रही थी दीदी….?

हां, तुम फिर…. क्या बात है?

एक पचास रुपए के बदले आपने दो दिए हैं दीदी। सुप्रिया सुनकर अवाक रह गई। ऐसा कैसे हो सकता है?

बूढ़े ने कहा, एक गिलास पानी दो।

बैठो। कहकर सुप्रिया अंदर चली गई। पर्स खोला। चार पचास-पचास के नोट थे। कुल दो सौ रुपए। उसमें से तीन बचे हैं। फिर दो कैसे दे दिए? पानी लेकर मूढ़ा हाथ में थामे सुप्रिया दरवाजे पर जा बैठी। फिर अचानक उसे ख्याल आया, ठहरो… स्क्वैश पीओगे…. शरबत?

बूढ़ा आश्चर्य से देखता है, शरबत है क्या?

है न। कहते-कहते तेज कदमों से पानी का गिलास लेकर वह अंदर चली गई। शरबत बनाते-बनाते ऊंचे स्वर में कहती है, छाते वाले, तुम्हारे ही बारे में सोच रही थी। आश्चर्य है, तुम ठीक फिर से चले आए।

मुझ बूढ़े के बारे में?

बिल्कुल।

लो…. पर मैंने तो तुम्हें अधिक पैसे नहीं दिए।

बूढ़े ने कहा, तब से हिसाब लगा रहा था दीदी। रुपए अधिक ही मालूम हो रहे हैं। मैं पीरतला का आदमी हूं। अधिक तो ले नहीं सकता। जो दिया सो तुम जानो पर मुझे रुपए नहीं चाहिए दीदी। बड़बड़ाते हुए बूढ़े ने नोट आगे कर दिया और कहा, यह तुम रख लो दीदी।

सुप्रिया थर-थर कांप उठी। आश्चर्य, यह कैसा व्यक्ति है। ऐसे लोग इस शहर में हैं क्या? पचास रुपए का नोट उसकी मुट्ठी में है। बूढ़ा मोटे कांच के अंदर विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर मुग्ध होकर देख रहा है। सुप्रिया चेहरा झुका लेती है।

बूढ़ा खड़ा हुआ, अब चलता हूं दीदी।

अच्छा। कहते-कहते सुप्रिया की आंखें भर आईं। बूढ़ा निःशब्द सीढियों के अंधकार में उतर गया। सुप्रिया दरवाजा बंद कर बालकनी में दौड़ी। पर कहां, सड़क पर तो कोई भी नहीं है। इतनी देर में वह बूढ़ा कितनी दूर जा सकता है भला?

वह फिर से बालकनी में लौट आयी। सड़क उसी तरह सुनसान है। आकाश घने बादलों से ढक गया है। इतने बादल कहां थे, कब आए?

शाम को घर लौटने पर सब कुछ सुनकर अचिन ने कहा, हमें थाने चलना चाहिए।

क्या कह रहे हो?

ठीक ही कह रहा हूं। इसी तरह दोपहर को कलकत्ते में डकैतियां हो रही हैं। कल यदि वह व्यक्ति आएगा तो तुम निश्चय ही दरवाजा खोलकर उसे घर के अंदर बुलाकर बिठाओगी। पचास रुपए लौटाकर वह सारी व्यवस्था कर गया है। इनके पीछे एक बड़ा गैंग होता है।

क्या कह रहे हो तुम? कभी देखा है उसे? सुप्रिया अधिक कह नहीं पाती है और उसकी आंखों में आंसू तैरने लगते हैं।

वह जैसे पीरतला का पीर हो। ऐसे भले लोग अब भी हैं, सोचा नहीं जा सकता।

सोचने की आवश्यकता भी नहीं। अनजाने लोगों के लिए दरवाजा मत खोल देना।

तर्क-वितर्क में सुप्रिया हार जाती है। तब तक बहुत रात हो चुकी होती है। बिस्तर पर लेटे ही उसने बादलों की गड़गड़ाहट सुनी। बादलों भरा सारा आकाश शहरवासियों को पुकार रहा है। सुप्रिया ने अचिन को आवाज दी, सुन रहे हो, वर्षा आ रही है। उठो…. अचिन उठो……।

वह पति के शरीर पर हाथ रखती है। अचिन करवट बदल कर पुनः सो जाता है। सुप्रिया फिर पुकारती है, अचिन मुझे पीरतला ले चलोगे? सुना है उस पीर के पेड़ के नीचे खड़े होकर…..अचिन….अ…चि…न..।

अचिन सोया रहता है। सुप्रिया निःशब्द जोर-जोर से रोने लगती है। रोते-रोते बिस्तर से उठकर बालकनी पर जाकर खड़ी होती है। वर्षा के जल से बालकनी भीग रही है। उसे भी भिगोती है। दोनों हाथ उठाकर बादल भरी रात की ओर देखकर नहाती रहती है वह। फुसफुसाती है, छाते वाले बूढ़े बाबा। जहर धो दो। हे पीर साहब…. पीरबाबा, धो दो मुझे, अचिन को भी।

नये बादल की नई वर्षा से शहर डूबता रहता है। धुलता जा रहा है शहर।

 

अनुवादः रतन चंद रत्नेश

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