अपनों की आरी अपनों पर भारी
-अशोक गौतम-
…तो वे कटती जड़ों वाले गिरते पेड़ की तरह मेरे पास आए। शुक्र खुदा का कि वे मुझ तक बिन गिरे पहुंच गए। पर अब जो वे मेरे सामने गिर भी जाते तो भी क्या होता! यहां तो आजकल हर दूसरा आदमी एक दूसरे के सामने मुस्कुराता शान से गिरा पड़ा है। इसीलिए न कोई गिरा अपने को उठवाने को किसी को अपने सामने खड़ा देख हाथ बढ़ा रहा है और न कोई खड़ा किसी गिरे को उठाने को हाथ ही बढ़ा रहा है। सबके हाथ सबकी जेबों में पड़े हैं। वैसे चरित्रवान से चरित्रवान की चरम परिणति गिरने में ही है। आज चरित्र की भाषा और परिभाषा दोनों बदल गए हैं। वैसे तय हैस जो उठेगा वह एक न एक दिन गिरेगा जरूर। अगर वह गिरे न भी तो उसे यार दोस्तों द्वारा तय मानिए वक्त से पहले शर्तिया गिरा दिया जाएगा। वैसे जब हम किसी को गिराते हैं खुद को तभी तो उठा पाते हैं। बिन किसी को गिराए खुद इंच भर भी अपने को कोई उठाकर बताए तो सही, लगे शर्त! किसी को गिराते गिराते कोई खुद भी तो गिर सकता है, पर किसी को उठाते उठाते कोई उठ नहीं सकता। अगर विश्वास न हो तो कोई किसी को गिराए बिना खुद को उठा कर दिखा दे तो उसके जूते से सड़ा पानी अमृत समझ पीऊं।
इस कंडीशन में मान लो जो वे बीच में गिर ही जाते तो…तो मैं भी उनको शायद ही उठाता। फिर उनके गिरने में मेरा उठना क्या पता कब नसीब होता? वैसे इन दिनों अपनों को गिराने में अपनों द्वारा गिराने का चलन जोरों पर है। ऐसे में गिरों को उठाने की अब कोई बात है भी नहीं। जो गिर गया, सो गिर गया। अंदर बाहर की ताकतों द्वारा लाख गिराए जाने की चेष्टाओं के बावजूद जो जैसे तैसे खड़े हैं, उनके साहस को मैं दाद देता हूं भाई साहब! जब वे गिरते पड़ते पूरे गिरे बिन मेरे सामने वाली कुर्सी पर आखिर बैठ ही गए तो मैंने उनको गले लगाते उनसे मुस्कुराते कहा, ‘भाई साहब! जेल से समय से पहले छूटकर आने पर आपका हार्दिक अभिनंदन!’ आम आदमी और खास आदमी में कई अंतरों के बावजूद मोटा मोटा एक अंतर यह भी होता है कि जब आम आदमी जेल से बिन किए जुर्म की सजा काट कर आता है तो समाज उसे हेय नजरों से देखता है।
पर जब खास आदमी किए जुर्म की सजा काटते बीच में ही जेल से बाहर लाया जाता है तो उसका भव्य स्वागत होता है। ‘आखिर आपका ये हाल किया तो किसने किया?’ तो वे लंबी आह भरते बोले, ‘मित्र! किसने क्या मित्र! सच मानो तो मेरी जड़ें मेरे अपनों ने ही काटी हैं। आज हम किसी और दौर में जी रहें हो या न, पर एक ऐसे दौर में जरूर जी रहे हैं जहां अपने ही अपनों की जड़ें काटने पर आमादा हैं। क्योंकि दूसरे हमारी जड़ों के बारे में इतना नहीं जानते जितना हमारे अपने जानते हैं। इतिहास साक्षी है कि जब जब किसी अपने की जड़ें कटी हैं, घर के भेदियों के हाथों ही कटी हैं। कहने वाले अब जो कहें सो कहें, पर जो रावण की जड़ों का सच जो विभीषण राम को न बताते तो क्या वे रावण को धराशायी कर पाते? असल में अपनों की जड़ों की खुफिया जानकारियों का जितना अपनों को पता होता है, उतना अपनी जड़ों वाले को भी नहीं होता। अपनों की जड़ें ढूंढने ढुंढवाने को तब उनको कतई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। सुअवसर मिलते ही बस, संबंधों की जड़ों को तनिक किनारे किया, स्वार्थ की आरी पकड़ी और अपनों की जड़ें आंखें मूंद कर काटने में लीन तल्लीन हो गए’, कहते कहते वे वहीं कुर्सी पर बैठे बैठे गिर गए।