परवानों को बुलाते हैं शम्मा दिखा के हम

-तनवीर जाफ़री-

गांधीवादी सिद्धांतों व विचारधारा पर चलने वाली कांग्रेस पार्टी देश की स्वतंत्रता से लेकर अब तक दुर्भाग्यवश अनेक बार विभाजित हो चुकी है। ब्रह्मानंद रेड्डी से लेकर बाबू जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, मोहसिना क़िदवई, देव राज अर्स, ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे और भी अनेक बड़े से बड़े नेताओं ने कांग्रेस पार्टी से समय समय पर किसी न किसी मतभेद के चलते अपना नाता तोड़ा। परन्तु चूँकि यह नेता गांधीवादी व धर्मनिरपेक्ष विचारधारा पर चलने वाले तथा व्यक्तिगत जनाधार रखने वाले नेता थे लिहाज़ा इन्होंने सत्ता हासिल करने के लिये किसी धुर विरोधी विचारधारा की दक्षिणपंथी पार्टी में शामिल होने के बजाये स्वयं अपना संगठन खड़ा किया। परन्तु वर्तमान दौर में जबकि बेरोज़गारी व मंहगाई अपने चरम पर है देश की अर्थव्यवस्था चौपट होने की कगार पर है। डॉलर के मुक़ाबले रुपया अपने रिकार्ड स्तर तक गिर चुका है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के पास अपनी साख बचाने के केवल दो ही उपाय हैं जिनके सहारे वह जनता में विशेषकर देश के बहुसंख्य समाज में लोकप्रिय बने रहने की कोशिश कर रही है।

एक तो मुख्यधारा के मीडिया विशेषकर टी वी चैनल्स को अपने पक्ष में कर सत्ता के क़सीदे पढ़वाना और समाज को धर्म के आधार पर विभाजित करने की पूरी छूट देना तथा दूसरे विवादित अविवादित धार्मिक मुद्दों को हवा देकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसाकर तथा धार्मिक विवाद पैदा कर धर्म आधारित ध्रुवीकरण कर बहुंसख्यवाद की राजनीति करना। भारतीय जनता पार्टी इस रास्ते पर चलते हुये भले ही स्वयं को संख्याबल के हिसाब से मज़बूत स्थिति में क्यों न पा रही हो परन्तु देश का एक बड़ा वर्ग ख़ासकर पढ़ा लिखा, गंभीर चिंतन करने वाला वर्ग, उदारवादी समाज यहाँ तक कि विदेशी मीडिया व अनेक विदेशी राजनेता भी भरतीय राजनीति की वर्तमान शैली की आलोचना करते रहते हैं। इस वर्ग का मानना है कि जो भारतवर्ष गाँधी का भारत कहा जाता है, जिस गाँधी के सत्य, अहिंसा के सिद्धांत की पूरी दुनिया क़ायल हो व अनुसरण करती हो, उस देश में गाँधी के हत्यारे गोडसे की विचारधारा का पनपना और सत्ताधारी नेताओं व उनके समर्थकों द्वारा गोडसे का गुणगान किया जाना आख़िर क्या सन्देश दे रहा है?

और इसी सन्दर्भ में दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह कि उपरोक्त हालात के बावजूद आख़िर क्या वजह है कि एक और जहाँ सत्ताधारी दल के क़द्दावर मंत्री नितिन गड़करी तक यह महसूस कर रहे हों कि-‘स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कांग्रेस का मज़बूत होना ज़रूरी है और यह उनकी ईमानदारी से इच्छा है कि पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत बने। लोकतंत्र दो पहियों के सहारे चलता है जिनमें से एक पहिया सत्ताधारी पार्टी है जबकि दूसरा पहिया विपक्ष है। लोकतंत्र के लिए मज़बूत विपक्ष की ज़रूरत है और इसलिए मैं हृदय से महसूस करता हूं कि कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत होना चाहिए।’

गडकरी का यह भी कथन है कि -‘चूंकि कांग्रेस कमज़ोर हो रही है, अन्य क्षेत्रीय पार्टियां उसका स्थान ले रही हैं, यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है कि अन्य क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस का स्थान लें।’ सवाल यह है कि जब सत्ता पक्ष का एक क़द्दावर नेता व केंद्रीय मंत्री कांग्रेस के बारे में ऐसी उम्मीद व विचार रख रहा हो ऐसे में क्या वजह है कि आये दिन कांग्रेस का ही कोई न कोई प्रमुख नेता किसी न किसी बहाने से न केवल कांग्रेस छोड़ रहा है बल्कि कांग्रेस की धुर विरोधी विचारधारा रखने वाली भारतीय जनता पार्टी में ही शामिल भी हो रहा है? वे कांग्रेसी नेता जो संसद से सड़कों तक भाजपा को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संरक्षण में चलने वाली सांप्रदायिक, नाज़ीवादी, गाँधी की हत्यारी, गोडसे का गुणगान करने वाली देश को धर्म जाति भाषा आदि के नाम पर विभाजित करने वाली तथा अंग्रेज़ों से मुआफ़ी मांगने वाले नेताओं की पार्टी बताया करते थे, क्या वजह है कि आज वही नेता उसी भाजपा में शामिल हो रहे हैं?

एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है आज के दौर में कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने वाले नेताओं में गांधीवादी सिद्धांतों पर चलने अथवा वैचारिक प्रतिबद्धता नाम की कोई चीज़ बाक़ी नहीं रही है। न ही उनमें इतना दम है कि वे अपने बल पर कोई नया राजनैतिक संगठन खड़ा कर सकें। इनके लिये इससे भी महत्वपूर्ण उनका राजनैतिक भविष्य अर्थात सत्ता में बने रहना है। यही वजह है कि कल तक गांधीवादी विचारधारा की माला जपने वाले और संघ व भाजपा को पानी पी पी कर कोसने वाले सुष्मिता देव, रीता बहुगुणा जोशी, हेमंत विस्वा सरमा, माणिक साहा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आर पी एन सिंह जैसे और भी कई नेता और पिछले दिनों सुनील जाखड़ जैसे नेता उसी भाजपा में शामिल हो गये। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो मध्य प्रदेश में अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस पार्टी छोड़ कर मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमल नाथ सरकार तक गिरा दी और राज्य में भाजपा सरकार बनने रास्ता साफ़ किया। ज़ाहिर है जब कांग्रेस पार्टी में ही ऐसे रीढ़ विहीन सिद्धांत विहीन तथा विचार विहीन सत्ताभोगी नेताओं की भरमार हो तो कांग्रेस को रसातल में जाने से भला कौन बचा सकता है।

कांग्रेस और भाजपा के इस अंतर से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जहाँ कांग्रेस पार्टी ने अपने गठन से लेकर अब तक पार्टी विभाजन में कीर्तिमान स्थापित किये हैं और नेताओं के दल बदल व पलायन में भी रिकार्ड बनाये हैं वहीँ भाजपा, जनसंघ से लेकर आज की भाजपा तक कभी विभाजित नहीं हुई। और नेताओं के पार्टी छोड़ने का भी सिलसिला नाम मात्र ही रहा। निः संदेह भाजपा इस मामले अति अनुशासित कैडर्स पर आधारित पार्टी है। उत्तरांचल, गुजरात, त्रिपुरा जैसे विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्रियों को रातों रात बदलने के बावजूद कोई नेता विद्रोही स्वर नहीं बुलंद कर सका। जबकि कांग्रेस में कमलनाथ बनाम सिंधिया, कैप्टन अमरेंद्र सिंह बनाम नवज्योत सिंह सिद्धू और अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट खींचतान के नतीजे सबके सामने हैं।

कांग्रेस के नेताओं के भाजपा में शामिल होने की दूसरी महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि भाजपा अपने अनुशासित कैडर्स पर भरोसा रखते हुए कभी आसाम में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुये हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री पद दे देती है तो कभी त्रिपुरा में अपनी पार्टी के विप्लव कुमार देव को हटाकर कर कांग्रेस से ही भाजपा में आये माणिक साहा को रातों रात मुख्य मंत्री बना देती है। कभी मणिपुर में कांग्रेस से आये एन बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री बनाती है, कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करती है तो कभी रीता बहुगुणा को मंत्री बनाती या लोकसभा का टिकट देकर सांसद निर्वाचित कराती है तो कभी जतिन प्रसाद को मंत्री बनाती है। इस तरह के और भी अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि भाजपा के इसतरह के आकर्षक ‘ऑफ़र्स’ भी कांग्रेस नेताओं के लिये भाजपा की पनाहगाह बनने में सहायक साबित हो रहे हैं। हर सिद्धांत व विचारविहीन नेता यही सोचता है कि भाजपा में जाते ही सत्ता हासिल हो जायेगी। गोया भाजपा अपनी रणनीति में सफल दिखाई देती है कि बक़ौल शायर ‘परवानों को बुलाते हैं शम्मा दिखा के हम’।

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