आवारा गाय नहीं, मीडिया को बांधें

-निर्मल अस्सो-

लोग बार-बार जिलाधीश कार्यालय आकर आवारा पशुओं की शिकायत करते, लेकिन उपायुक्त महोदय इस पक्ष में नहीं हैं कि इन्हें एकदम हटा दिया जाए। उन्हें भय है कि आवारा हो चुके पशुओं को अगर बंद कर दिया गया, तो वे कहीं आत्महत्या ही न कर लें। लोकतंत्र आजकल आत्महत्या से डरने लगा है। मध्य प्रदेश में कुछ पत्रकार इसीलिए नंगे कर दिए गए, ताकि वे चाहकर भी आत्महत्या न कर सकें। सवाल यह नहीं कि लोग आत्महत्या करते क्यों हैं, बल्कि यह है कि आत्महत्याओं से बचाने के लिए उन्हें नंगा कैसे किया जाए। नंगा  होने के लिए अपने देश ने इतना माहौल तो तैयार कर ही दिया है कि क्या पढ़े-लिखे और क्या अनपढ़। परीक्षा में नकल दरअसल ऐसा ही नंगापन है, लेकिन यकीन मानें आज तक किसी नकलची बच्चे ने कभी खुदकुशी करने की नहीं सोची। मरे वही जो साल भर कोशिश करके भी पढ़ाई में खुद को नहीं बटोर पाए। दरअसल भारत में दो तरह के समाज पैदा हो चुके हैं। एक ऐसा समाज है जो देश की व्यवस्था में आदर्शों का आवरण ढूंढते-ढूंढते इतना कंगाल हो जाता है कि उसे अपने ही चरित्र पर भरोसा नहीं होता। दूसरी ओर खड़े समाज से सीखें जो पूरे देश को नंगा करके भी हमारा आदर्श बन जाता है।

इसी समाज के कारण देश चल रहा है, बल्कि देश अपने मुताबिक अगर किसी को बना पा रहा है तो वह समाज का यही हिस्सा है जो न खुद को ढांप कर चलता है और न ही राष्ट्र को। देश और समाज को एक ही पहलू में रखने के लिए जरूरी है कि हमारे विचारों से अधिकारों तक एक तरह का नंगापन रहे। देश ने वैसे भी अब जो देखना पसंद किया है, वह खुद ही पैदा की गई नंगई है। इसलिए समाज के जिस हिस्से से सबसे ज्यादा नंगे लोग पैदा हो रहे हैं, उसी से देश का भी लगाव बढ़ रहा है। अगर यकीन नहीं है तो किसी पंचायत स्तर के चुनाव में खड़ा होकर देख लें कि वहां कपड़े बचाना कितना महंगा पड़ता है, बल्कि मतदाता भी जानता है कि उसके सामने अति गिरा हुआ या बेहद नंगा आदमी ही सफल जनप्रतिनिधि बन सकता है। एक साफ-सुथरा या पूरी हद तक ढका हुआ व्यक्ति किस काम का।

हमारे जनप्रतिनिधि होते ही इसलिए हैं कि वह भ्रष्टाचार, अपराध और रिश्वत के आगे निर्वस्त्र हो जाएं। दरअसल जनता ने ही जनप्रतिनिधियों को बेहयाई सिखाई है। जनता खुद अपनी बहू-बेटियों से अभद्र व्यवहार करते हुए यह आशा करती है कि नेता आकर उसे बचा ले, तो यह कार्य मंदिर में तो होगा नहीं। दरअसल आवारा पशुओं को न हटाने से हम देश की आवारगी को देख सकते हैं। आवारा गाय इतनी ही भोली है, जितना दर-दर घूम रहा पत्रकार। आवारा गाय से समाज सीखे या न सीखे, पत्रकार यह सीख सकता है कि उसे कोई नहीं बांध सकता, बल्कि आज के दौर में लोकतंत्र के लिए आवारा मीडिया जरूरी है। जो पत्रकार आवारा होते हैं, वही देश को देख पाते हैं, वरना आवारा गाय से भी आसान है किसी पत्रकार को बांधना। पूरे देश में इस समय होड़ तो यही है कि अगर आवारा पशुओं को जनता की नजर से बचाना है, तो इसी संख्या में पत्रकारों को बांध दो। पत्रकार को बांध कर देश अपनी ही नंगई नहीं देख सकता और यही लोकतंत्र का रामबाण इलाज भी है।.(स्वतंत्र लेखक)

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