लड़कियों का आत्मसम्मान बढ़ाएं, शादी की उम्र नहीं

-लेखा रत्तनानी-

इस परिवर्तन में यह नहीं देखा गया है कि राज्य ने अचानक स्वयं के लिए परिवारों में हस्तक्षेप करने, व्यक्तिगत पसंद और विकास के मामले में टकराव लाने के लिए अधिक शक्तियां प्राप्त कर ली हैं- खास तौर पर उस समय जब संघर्ष किसी मुद्दे पर बातचीत करने या परिवर्तन को प्रभावित करने का सबसे पसंदीदा तरीका प्रतीत होता है। यह सबसे बड़ा झटका है तथा मानव विकास के विचार के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जब बड़ी संख्या में लोगों को कार्रवाई पर भरोसा नहीं है और परिवर्तन का विचार चल नहीं पाता है, जिनमें वैचारिक अतिक्रमण होने की संभावना होती है तो उस समय कार्रवाई को स्थगित करना सबसे अच्छा होता है।

भारत में स्वास्थ्य और विकास के मामले में सभी को शामिल करने वाली अच्छाई लाने के लिए लड़कियों के लिए शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करना कोई आसान कदम नहीं है। स्वास्थ्य संबंधी कई अन्य मुद्दों पर अधिक ध्यान न दिए जाने के कारण सरकार के इस दावे में दम नजर नहीं आता कि यह बालिकाओं के हित में है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5 2019-20) का नवीनतम सर्वे हमें बताता है कि बच्चों के साथ-साथ वयस्कों, पुरुषों व महिलाओं, जिनमें गर्भवती स्त्रियां भी शामिल हैं, के बीच एनीमिया (खून की कमी) के बीमारों की संख्या में एनएफएचएस-4 (2015-16) में दर्ज संख्या में वृद्धि हुई है। उल्लेखनीय है कि एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट में 15-49 वर्ष आयु वर्ग की 57 फीसदी भारतीय महिलाओं में खून की कमी की शिकायत मिली है जबकि एनएफएचएस-4 रिपोर्ट में 53.1प्रति सैकड़ा से अधिक में खून की कमी की सूचना मिली थी। यह महिला और बाल विकास के क्षेत्र में किए जाने वाले कार्यों की जरूरत की ओर इशारा करता है।

इसके साथ कई सवाल खड़े करता है कि पिछले कुछ वर्षों में खून की कमी की बीमारी क्यों और कैसे बढ़ी हैं। कई अन्य संकेतकों में सुधार हुआ है लेकिन सब कुछ ठीक नहीं है। 18 वर्ष की आयु से पहले शादी करने वाली 20-24 आयु वर्ग की महिलाओं की संख्या 26.8 प्रतिशत (एनएफएचएस-4) से घटकर 23.3 प्रश (एनएफएचएस-5) रह गई है। इससे यह भी पता चलता है कि 18 वर्ष की उम्र से पहले लड़कियों की शादी न करने के बारे में लोगों को समझाने के लिए अभी भी कितना काम करने की जरूरत है।

इन चुनौतियों के बीच शादी की उम्र को बढ़ाकर 21 वर्ष करने के प्रस्ताव का मतलब है कि सरकार नियमन और नियंत्रण का विस्तार करने के लिए जो कदम उठा रही है, वे विवादास्पद हैं। यदि विकास के लिए इस तरह के कानून की आवश्यकता है तो सरकारों द्वारा वर्षों से पारित किए गए ढेरों कानूनों को देखते हुए भारत अब तक एक विकसित देश होता। इनमें से प्रत्येक कानून किसी न किसी तरह से राज्य की भूमिका का विस्तार करता है तथा भारत जैसे गरीब देश में राज्य की बलपूर्वक शक्ति का नकारात्मक पक्ष है जो सबसे कमजोर वर्ग के नागरिकों के खिलाफ है। इससे भी बदतर बात यह है कि इस क्षेत्र में पहले से ही सामाजिक दबाव है जो युवा लड़कियों व लड़कों की स्वतंत्रता को नियंत्रित करता है व अपने दम पर अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का रास्ता खोजने से रोकता है तथा किसी न किसी बहाने नैतिक नियंत्रण की व्यवस्था एवं राज्य के हस्तक्षेप के पहलुओं को सामने ला रहा है।

मुंबई जैसे शहर में ऐसे हालात हैं कि जहां लोगों ने आपत्ति जताई है, पुलिस ने हस्तक्षेप किया, लड़के-लड़कियों को एक साथ समय बिताने से रोकने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए गए। एक शांत, हरी-भरी जगह पर जाकर समय गुजारने की चाह रखने की इच्छा रखने वाले जोड़ों पर लोगों की नैतिक सजगता का पहरा लग गया है। ऐसा दक्षिण मुंबई में मरीन ड्राइव जैसे लोकप्रिय सार्वजनिक स्थानों में हुआ है जहां नैतिक पहरेदारों को रास्ते से हटाने के लिए पुलिस को बुलाया गया है। यह राजीव गांधी सागर लिंक के एप्रोच रोड पर हुआ है जो मुंबईकरों को समुद्र के ऊपर ड्राइव करने और अपने व्यवसाय के स्थल पर शीघ्र पहुंचने के लिए बनाया गया है। युवा जोड़ों का एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर घूमना कॉलेजों को पसंद नहीं है, युवा जोड़ों के लिए पार्क शांतचित्त से बैठने की जगह न होकर अक्सर मुसीबत की वजह बन जाता है। बड़े समूहों में भी लड़कों और लड़कियों द्वारा कुछ समय बिताने के मसले पर अभी भी कई माता-पिता असहज महसूस करते हैं।

यदि मुंबई जैसे महानगरीय मेगापोलिस में यह स्थिति है तो कल्पना कीजिए कि भारत के अंदरूनी हिस्सों में क्या हालत होगी जहां पूर्वाग्रह तथा नैतिक मानदंड और कड़े हो सकते हैं। सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें और वीडियो हैं जिनमें युवा जोड़ों को पीटा गया, लड़की को घसीटकर घर पर सबक सिखाया गया और लड़के को चेतावनी दी गई कि वह वहां फिर कभी दिखना नहीं चाहिए।

इस माहौल के चलते जब भी और जहां भी लड़कियों को सक्रिय होने का मौका मिल सकता है तो उन्हें इस नए प्रस्तावित कानून के माध्यम से दूर ले जाया जाता है क्योंकि प्रस्तावित अधिनियम के कारण उनके द्वारा उठाया गया कदम अवैध हो जाता है और उन्हें पैतृक घर में रहने पर विवश होना पड़ेगा। उस लड़की के बारे में सोचिए जिसे अपने माता-पिता और भाइयों की देखभाल में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, उनके आदेश मानने पड़ रहे हैं और जो एक विकल्प पाने में असमर्थ है। कई भारतीय परिवारों में अन्य विभिन्न कारणों से एक बेटी को पति और उसके परिवार की संपत्ति के रूप में देखा जाता है जिसे विदा किए जाने की प्रतीक्षा की जाती है- यह अवधारणा ‘पराया धन’ शब्दों में व्यक्त की गई है।

क्या शादी की उम्र की यह कानूनी बढ़ोतरी परिवार को उक्त अवधारणा पर अमल से रोक देगी या क्या वे अभी भी इस उपाय को विफल करने के तरीकों की तलाश नहीं करेंगे और फिर उन तरीकों को ढूंढेंगे जिनमें पारम्परिक फरमान के रूप में लड़की शादी होने और पति के घर जाने तक के समय के दौरान अधिक नियंत्रण के साथ काम करेगी और एक मुश्किल संतुलन बनाएगी? क्या इससे दहेज की मांग कम होगी? क्या यह बालिकाओं को अपनी शिक्षा जारी रखने की अनुमति देगा? या ससुराल में रहने के तरीके सीखने की तैयारी के कारण यह उसके व्यक्तित्व को तबाह नहीं कर देगा? इनमें से किसी भी प्रश्न का समाधान नहीं है। तथ्य यह है कि दहेज के खिलाफ कानून होने के बावजूद दहेज लेना जारी है और सच कहा जाए तो यह स्थिति हाल के दिनों में और भी बदतर हो गई है।

इस परिवर्तन में यह नहीं देखा गया है कि राज्य ने अचानक स्वयं के लिए परिवारों में हस्तक्षेप करने, व्यक्तिगत पसंद और विकास के मामले में टकराव लाने के लिए अधिक शक्तियां प्राप्त कर ली हैं- खास तौर पर उस समय जब संघर्ष किसी मुद्दे पर बातचीत करने या परिवर्तन को प्रभावित करने का सबसे पसंदीदा तरीका प्रतीत होता है। यह सबसे बड़ा झटका है तथा मानव विकास के विचार के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जब बड़ी संख्या में लोगों को कार्रवाई पर भरोसा नहीं है और परिवर्तन का विचार चल नहीं पाता है, जिनमें वैचारिक अतिक्रमण होने की संभावना होती है तो उस समय कार्रवाई को स्थगित करना सबसे अच्छा होता है। परिवर्तन की जल्दबाजी करने के बजाय उस पर चर्चा, बहस और परिवर्तन के लिए अवसर उपलब्ध कराना चाहिए।

इस सप्ताह के शुरू में लोकसभा में इस विधेयक को पेश करते समय केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी का भाषण शानदार नहीं था। इस विधेयक के बारे में फिलहाल सबसे अच्छी बात यह कही जा सकती है कि सरकार इस पर उचित बहस के लिए संसदीय प्रवर समिति के पास भेजने पर सहमत हो गई है। किसी भी सूरत में इस विधेयक पर जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं के लिए शादी की औसत आयु पहले से ही 22.1 वर्ष है। अगर अभी भी शादी की उम्र बदलने की जरूरत है तो ज्यादा विकल्पों की तलाश जरूर की जानी चाहिए। यदि समानता वांछित है तो इसे प्राप्त करने का एक तरीका यह है कि लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष की करने के बजाय लड़कों के लिए शादी की उम्र को 18 वर्ष तक कम किया जाए। यह एक उचित मुद्दा है कि जो नागरिक मतदान कर सकते हैं, उन पर वयस्कों के रूप में किसी भी अपराध के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है, उन्हें कम से कम शादी करने का न्यूनतम अधिकार होना चाहिए। लड़कियों का आत्मसम्मान बढ़ाने के लिए जरूरी है कि एक निर्दयी कानून व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसकर पुलिस केस या अदालत के कमरे के साथ जीवन का एक नया चरण आरंभ करने के बजाय उन्हें खुद का फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

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