शिक्षकों की कमी

-सिद्धार्थ शंकर-

 

यूनेस्को ने एक बार फिर भारत में शिक्षा की स्थिति और शिक्षकों की कमी को लेकर चिंता जताई है। यह कमी इतने वर्षों से चल रही है कि जब-जब ऐसे सर्वेक्षण या विश्लेषण देश के समक्ष आते हैं तो उसमें नई बात नहीं लगती। एक लाख स्कूलों में केवल एक शिक्षक और ग्यारह लाख शिक्षकों के पदों रिक्त होना देश में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मनाक माना जाना चाहिए। भारत आज इतना संसाधान-विहीन देश तो नहीं है कि वह बच्चों के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था न कर सके। शिक्षकों की कमी की समस्या की जड़ें काफी गहरी हैं। इसके लिए कौन और कितना जिम्मेवार है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने 19 अगस्त, 2015 को एक आदेश में कहा था कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव अगले छह महीने में योजना तैयार करें कि कैसे सरकारी खजाने से वेतन लेने वाले हर व्यक्ति के बच्चे केवल सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे! सभी जानते थे कि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि एकजुट होकर संभ्रांत और सरकारी व्यवस्था इसे होने नहीं देगी!

और ऐसा ही हुआ भी। यही वर्ग सरकारी स्कूलों की मौजूदा स्थिति, साख की कमी और सामान्य-जन के अविश्वास के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है। जब संभ्रांत वर्ग के बच्चों के लिए निजी स्कूल उपलब्ध हैं और वहां पढ़ाने के लिए शिक्षा-भत्तों के प्रावधान उपलब्ध हैं, तो फिर यह वर्ग सरकारी स्कूलों की फिक्र क्यों करेगा! नई शिक्षा नीति-2020 के क्रियान्वयन के समय इस सच्चाई को स्वीकार करना सभी के और देश के हित में होगा। नई शिक्षा नीति विश्वास दिलाती है कि हर बच्चे को ऐसे स्कूल में शिक्षा मिलेगी जहां बुनियादी सुविधाएं होंगी, उचित छात्र-शिक्षक अनुपात में पूर्णकालिक, नियमित और प्रशिक्षित शिक्षक होंगे। वस्तुस्थिति यह है कि चार दशक से कई राज्यों ने नियमित पूर्णकालिक शिक्षकों की जगह विभिन्न पदनामों से अंशकालिक-अनियमित शिक्षक थोड़े से मानदेय पर नियुक्त करने का चलन बना लिया। इससे नियमित शिक्षकों के सेवानिवृत होने के साथ नियमित पद खाली होते गए। नौकरशाही को यह व्यवस्था बहुत रास आई। जब कोई देश शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर फैसले केवल नौकरशाहों पर छोड़ देता है तब ऐसी घातक परिस्थितियां पैदा होती हैं। देश में धीरे-धीरे शैक्षिक और अकादमिक नेतृत्व के स्थान पर सिविल सेवा के अधिकारी स्कूल बोर्ड, पाठ्यपुस्तक बोर्डों, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) जैसी संस्थाओं में शीर्ष पदों पर सुशोभित होने लगे।

 

यह क्यों होता गया, इसे जानना जरूरी है। क्या भारत की सिविल सेवा यह जिम्मेदारी स्वीकार करेगी कि आज जो विसंगतियां शिक्षकों की नियुक्तियों को लेकर उत्पन्न हुई हैं, उसकी जिम्मेवारी केवल उसकी और उसकी ही है? शिक्षकों कि नियुक्ति, पदस्थापना और प्रशिक्षण को लेकर अनेक समस्याएं समय-समय पर ध्यान आकर्षित करती रही हैं। 1986 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करते वक्त यह तय हुआ था कि देश में कोई भी ऐसा स्कूल नहीं होगा जिसमें कम से कम दो शिक्षक न हों। ‘आपरेशन ब्लैकबोर्डÓ नाम की परियोजना के अंतर्गत केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों से आंकड़े मांगे और उसके आधार पर लगभग साढ़े पांच लाख प्राथमिक विद्यालयों को भवन निर्माण, शिक्षण सामग्री आदि के साथ एक लाख चौंतीस हजार शिक्षकों की नियुक्ति के लिए धनराशि मुहैया कराई। पैसा तो केंद्र का था, मगर सारे काम तो राज्य सरकारों को ही करने थे, जिनमें शिक्षकों की नियुक्ति, विद्यालयों में कमरे बनवाना, शिक्षण सामग्री की खरीद जैसे काम शामिल थे। पर कुछ वर्ष बाद अधिकांश राज्यों को जांच समितियां बनाने को मजबूर होना पड़ा और सारी परियोजनाएं लक्ष्यों से दूर होती चली गईं। आज संचार तकनीक ने पर्यवेक्षण में अनेक सार्थक सुधार कर दिए हैं। अब वह सब संभव हो गया है जो पहले जानना और सुधारना कठिन था। लेकिन आज भी स्कूल का ठीक से चलना अधिकारियों की ईमानदारी, कर्तव्य-निष्ठा, समर्पण के परिमाण पर ही निर्भर करता है। जन-प्रतिनिधि यदि अपने क्षेत्र में शिक्षा को प्राथमिकता दें तो प्रशिक्षित और नियमित शिक्षकों की उपस्थिति हर स्कूल में निश्चित की जा सकती है।

Leave A Reply

Your email address will not be published.