भारत में पत्रकारिता के विविध आयाम और हस्ताक्षर

उधव कृष्ण

राजाओं- महाराजाओं के काल से शुरू हुई पत्रकारिता क्रांति के पथ पर अग्रसर हो आज दुर्त्त गति से चलने वाली इंटरनेट मीडिया तक पहुँच चुकी है। आज के इस हाई-स्पीड मल्टी मीडिया के दौर में खबरें प्रसारित नहीं होती बल्कि चुटकियों में वायरल हो जाती हैं। हालांकि जिस समय सही मायने में पत्रकारिता का उदय हुआ उस काल-खंड में भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र स्थापित था। 

उस समय राजाओं के आदेश से लेखनी के भारी विद्वान, प्रसिद्ध लेखक इत्यादि शिल्पकारों एवं काश्तकारों की मदद से शिलालेखों, भित्तीचित्रों एवं स्तंभ लेखों के माध्यम से राजाओं की प्रशंसा व गुणगान किया करते थे। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका ढ़ोल- नगाड़ा पीटकर और गाँव-गाँव घूमकर संदेश देने वाले संदेशवाहक निभाते थे। राजाओं के सरपरस्ती में नृत्य- संगीत और नाट्य के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करना भी इसी के विविध रूप थे। जनसंचार का कार्य ऋषिमुनियों, साधुओं, फकीरों व संतो द्वारा समागमों और अनुष्ठानों के माध्यम से मौखिक रूप से खबरों व वीरगाथाओं आदि के विस्तारीकरण के साथ किया जाता था। ऐसे संतो-फकीरों में ज्यादातर तो राजाओं की वीरगाथा ही सुनाते व उनका प्रचार प्रसार करते हुए जगह-जगह भ्रमण करते, पर हैरान करने वाली बात ये थी कि इनमे से कुछ उन्मुक्त रूप से राजाओं की नीतियों का विरोध भी करते थे और लोगों की कायरता और बेबसी पर तंज भी कसते थे। ये परंपरा अनवरत कई सौ वर्षों तक यूँही कुछ उतार-चढ़ाव के साथ चलती रही, हाँ शिलालेखों की जगह अब ताम्रपत्र, कपड़ों एवं बाद के वर्षों में कागज़ो का प्रयोग होने लगा। हालांकि पत्रकारिता के उद्भव के संदर्भ में लोगों के मत इससे भिन्न भी हो सकते हैं। परंतु चिंतन की जाए तो जानेंगे कि भारत में पत्रकारिता का स्वर्ण काल कभी रहा ही नहीं बल्कि इसके विविध आयाम रहे। जिसमें कभी इसने राजाओं का गुणगान किया तो कभी उसपर व्यंग्य किए, कभी गरीबों की दशा पर रोया, तो कभी धर्म का समर्थन कर लोगों को जगाने की कोशिश की, तो कभी धार्मिक आडंबरों और रूढ़ियों पर मुहिम चला लोगों को जागरूक भी किया, पर पत्रकारिता की जो छवी लोगों के दिलों में आज भी बसी है वो है स्वतंत्रता संग्राम में इसकी प्रचण्डता, विपरीत परिस्थितियों में भी गैर भारतीय सत्ता से लोहा लेने की इसकी बुलन्द हिमाक़त और जिजीविषा। स्वाधीनता संग्राम में देश को एक कड़ी में बांधने का कार्य पत्रकारिता ने ही किया था।

विभिन्न भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं एवं गुप्त प्रेस ने लोगों के दिलों में बार-बार आज़ादी की अलख जगाई थी। क्या इस कालखंड को पत्रकारिता का हस्ताक्षर कहना उचित नहीं होगा, तब देश के अग्रिम पंक्ति में खड़े क्रांतिकारी या तो वक़ील थे या पत्रकार अथवा दोनों। क़लम की ताक़त क्या होती है भारत के साथ साथ पूरी दुनियां ने इसे उस जामने में जाना था और महसूस भी किया था। और तब से ही पत्रकारिता के कुछ मूक-सिद्धांत मुखरता से जनमानस के मनमस्तिष्क पर उभर आए थे जो आज तक अमिट हैं।

जैसे पत्रकार दबे-कुचले एवं समाज के शोषित व वंचित जनता की आवाज़ बनेंगे, लोकतंत्र में कोई भी सत्तासीन पार्टी अगर उन्मुक्तता दिखायेगी तो ये विपक्ष की भूमिका निभाएंगे, बिना किसी लालच या भय के सच्चाई लिखेंगे और जरूरत पड़ी तो वर्तमान सत्ता के ख़िलाफ़ जनांदोलन को भी गति देंगे। पूर्ण स्वराज प्राप्त हो जाने व 1951-52 के प्रथम लोकसभा चुनाव के बाद से ऐसा कुछ-कुछ देखने को मिला भी। इसके कुछ दशकों बाद भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टीवी) के उदय और उसके ही कुछ वर्ष के अंतराल पर प्राइवेट चैनलों की बढ़ती संख्या देख एकबारगी ऐसा लगा था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति ने पारंपरिक माध्यमों को बहुत पीछे छोड़ उन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए मज़बूर कर दिया। पर 2014 या कहें उससे कुछ पहले से ही स्थितियां बिल्कुल बदल सी गईं, सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सएप पर कई प्रकार के भ्रामक और तथ्यहीन संदेश फ़ैलाये जाने लगे, ग़लत जानकारियों के साथ लोगों को भावनात्मक रूप से भड़काने और उनके मस्तिष्क में एक दूसरे के ख़िलाफ़ जहर घोलने का कार्य किया जाने लगा। और ये सब संभव हुआ संचार क्रांति के एक अभूतपूर्व ख़ोज से जो था इंटरनेट इनेबल्ड स्मार्टफोन, ये सस्ता और सुलभ होने की वजह से अब बहुसंख्यक व्यक्ति के हाथों में था, लोग अपने हाथों तक पहुँचा हुआ कंटेंट पढ़ कर, देख कर रोमांचित हो उठते। वहीं टीवी के एंकर अब पार्टी विशेष के अघोषित प्रवक्ता बन गए। शुरुआत में इसमें बहुसंख्यक लोगों को काफ़ी रस मिलने लगा, इनमें आंनद उठाने वाले ज्यादातर वैसे ही लोग शामिल थे जो उन तथ्यहीन और फ़ैलाये गए संदेशों पर भरोसा कर रहे थे जो उन तक एक सोची समझी रणनीति के तहत प्रेषित की जा रही थी।

पर धीरे-धीरे उनमें से ज्यादातर लोगों को सारी बात समझ आने लगी और तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज्यादातर चैनल का नया और सामुहिक नामकरण ‘गोदी मीडिया’ के रूप में जनता द्वारा ही कर दिया गया। क्योंकि अब खबरें प्रसारित नहीं बल्कि आईटी सेल और कंटेंट राइटर के द्वारा प्रायोजित की जाने लगीं, हीट-डिबेट, हिन्दू-मुस्लिम जैसे गैर-जरूरी और उन्मादी मुद्दे रात के खाने का हिस्सा बन गए। कुछ सालों में घरों में टीवी चैनल बदले जाने लगे, धीरे-धीरे लोगों द्वारा टीवी पर न्यूज़ देखना बहुत कम हो गया। ज्यादातर दर्शक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अर्थात टीवी चैनलों से छिटकने लगे। ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ में भारत कई पॉयदान पिछड़ गया। वर्तमान समय में इनसब के परिणामस्वरूप एकबार फिर से लोगों की नजर पारंपरिक माध्यमों पर टिकने लगी है, दैनिक अख़बारों के साथ उसके डिजिटल संस्करण एवं वेब पोर्टल इत्यादि पर भी लोग समय देने लगे हैं। हालांकि ये बात भी सही है कि अभी भी इंटरनेट मीडिया पर लोग पूर्णतः निर्भर नहीं हुए हैं, कारण है कि इसकी विश्वसनीयता पर अभी लोगों का पूरा भरोसा क़ायम नहीं हो पाया है।

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