जब भी कदम बढ़ाऊं मैं
श्रेया जोशी
कपकोट, बागेश्वर
उत्तराखंड
जब भी कदम बढ़ाऊं मैं,
पर जाने क्यों थक जाऊं मैं?
मन विचलित हो जाता है,
कुछ भी समझ नहीं आता है,
फिर भी कोशिश तो करती हूं,
पर जगह-जगह रुक जाऊं मैं,
तिनका तिनका पिरो-पिरो कर,
जब मैं कुछ कर पाती हूं,
पर इस दुनिया के ताने सुनकर,
फिर मैं पीछे हट जाती हूं,
उम्मीद तो बहुत करती हूं,
के मंजिल तक पहुंच पाऊं मैं,
पर कैसे हार मानूं मैं,
सोच कर लड़खड़ाऊ मैं,
जब भी यह सोचती हूं,
के जिंदगी में ढ़ल जाऊं मैं,
करती कोशिशें खूब हूँ मैं,
पर इतनी बेरहम है ये दुनिया,
उठाए न फिर मुझे कोई,
अगर रास्ते में कहीं गिर जाऊं मैं।।
चरखा फीचर्स