जानिए इस्लाम में क्यों जरूरी है जुमे की नमाज
सभी धर्मों में ईश्वर की इबादत करने के अलग-अलग तरीके हैं अलग-अलग नामों के साथ उसकी शुरूआत और समापन दोनों किए जाते हैं। यहां हम बात कर रहे है इस्लाम (मुस्लिम) धर्म की जिसमें सबसे जरूरी और अहम मानी जाती है जुमे की नमाज। वैसे तो इस्लाम के धार्मिक ग्रथों के हिसाब से हर रोज नमाज अदा करनी चाहिए। लेकिन जो रोज नहीं कर पाते उनके लिए विशेषकर शुक्रवार का दिन बनाया गया है इस दिन को जुम्मा माना जाता है और इस दिन पढ़े जाने वाली नमाज को जुमे की नमाज कहा जाता है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर जुमे की नमाज को इतना महत्वपूर्ण क्यों माना गया है। क्यों शुक्रवार के दिन को ही जुमा कहा जाता है। आइए जानते है इसके पीछे का कारण…
यूं तो हर दिन अल्लाह का है, उसे याद करने का है तो ऐसे में शुक्रवार की नमाज का महत्व इतना खास क्यों है? हर शुक्रवार मस्जिद में या फिर घर के पास बने किसी पार्क में हम लोगों को नमाज पढ़ते हुए देखते जरूर हैं। यहां तक कि एक नमाजी को जहां कहीं भी जगह मिले, वह शुक्रवार के दिन अपना आसन बिछाकर वहां नमाज पढ़ना शुरू कर देता है।
अब बात करते हैं दिल्ली में प्रसिद्ध मस्जिद यानि की जामा मस्जिद की। दरअसल जामा मस्जिद का जुमा के नाम पर ही रखा गया है, जिसके अनुसार यह वह स्थान है जहां हर जुम्मे के दिन लोग इकट्ठे होकर नमाज पढ़ते हैं। एक दूसरे से मिलकर अपनी जिंदगी की परेशानियों का हल निकालते हैं और एक दूसरे के प्रति अपने रिश्ते को कायम रखते हैं।
इस्लाम में जुमा को अल्लाह के दरबार में रहम का दिन माना जाता है। इस दिन नमाज पढ़ने वाले इंसान की पूरे हफ्ते की गलतियों को अल्लाह माफ करते हैं और उसे आने वाले दिनों में एक अच्छा जीवन जीने का संदेश देते हैं।
इसके अलावा किसी अन्य दिन आप इत्र यानि कि परफ्यूम लगाएं या ना लगाएं, लेकिन शुक्रवार के दिन इत्र लगाना अति आवश्यक है। आखिरी काम है सिवाक करना, यानि दांतो को साफ करने की प्रतिक्रिया। इस्लाम में यह तीनों कार्य शुक्रवार के दिन करना बेहद महत्वपूर्ण माना गया है।
ऐसा भी कहा जाता है कि शुक्रवार के ही दिन अल्लाह द्वारा आदम को बनाया गया था और इसी दिन आदम की मृत्यु भी हुई थी। लेकिन आदम जन्म के बाद धरती पर आए थे, इसलिए दिन के एक घंटे को बेहद अहम माना जाता है। कहते हैं शुक्रवार को यदि आप अल्लाह से कुछ ना भी मांगो तब भी वे आपके मुराद सुन लेते हैं और उसे पूरा करते हैं। परंतु वह मुराद इस्लामिक कायदे-कनूनों के अनुकूल ही होनी चाहिए।