बंटवारा

-योगेन्द्र प्रताप मौर्य-

घड़ी में जैसे ही रात के 11ः59 बजे कि राम ने मां को जल्दी से उनकी छड़ी पकड़ा दी और उधर श्याम ने पिताजी को। मां और पिताजी को भी पता था कि सोलहवां दिन लगने वाला है इसलिये वे पहले से ही तैयार बैठे थे। कहीं देर हो गई तो बहुओं में सिर फुटौवल शुरु हो जायेगी। मां ने घर का चैखट लांघा। तो उधर पिताजी छड़ी लिए घर में प्रवेश के लिए खड़े थे। मां, पिताजी को और पिताजी, मां को आंसू भरी नयनों से निहार रहे थे। पूरे पंद्रह दिन बाद यह मिलन क्षणिक था। थोड़ा बातें कर लें नहीं तो पंद्रह दिन का इंतजार करना पड़ेगा। न जाने कितनी ही बातें आंखों ही आंखों में हो गई। उजाला भरी रात थी। मानो आज चांद भी उन्हें एक -दूसरे को जी भर देखने के लिए अपनी आंखे खोल दी हो। पर चांद भी मनुष्य के निष्ठुरता के आगे लाचार है।

पिताजी जल्दी अंदर आ जाओ, बिस्तर लगा है-राम ने कहा।

उधर श्याम मां का हाथ पकड़कर अंदर खींच ले गया। सो जाओ बिस्तर पर पिताजी का है-श्याम ने कहा।

बेटा थोड़ा पानी पिला दो-मां ने कहा।

अच्छा राम की जुगनी ने पानी नहीं पिलाया हां पिलाती भी क्यों उन्हें तो पता था मां को अभी ठेल देंगे श्याम के यहां। फिर उसकी जिम्मेदारी हो जायेगी। पर हम भी पानी नहीं देगे। सुबह का इंतजार करो। और सो जाओ-श्याम ने मां से कहा।

शायद मां ने आंसुओ से ही प्यास बुझा ली हो। पता नहीं स्वामीजी किस हाल में होंगे? कहीं राम उन्हें मेरी टूटी हुई चारपाई ही न देदे सोने के लिए। उन्हें नींद कैसे आएगी। जिंदगी भर राम और श्याम की खुशी के लिए अथक परिश्रम करते रहे। अब बुढ़ापा में…… किसे उनकी परवाह है?

मां को नींद कहां आने वाली थी। मां सोचने लगी कि आखिर मेरे परवरिश में कहां खोट रह गई थी। अपने हिस्से की रोटी इन्हें खिलाई। पहले प्यास इनकी बुझाई। स्वामीजी जब कोई सामान बाजार से लाते थे तो पहले राम और श्याम को खिलाते थे। यदि बच गया तो हम और स्वामी जी खाते थे। मां वैष्णो हमारी कैसी परीक्षा ले रही है?

आज भी याद है कि जब कभी भी राम और श्याम को किसी चीज की जरूरत पड़ती थी। तो वे दोनों कैसे मेरे आंचल से लिपट जाया करते थे,  पगले तरह-तरह के बहाने बनाकर हमसे ओ चीज हासिल कर लेते थे। मैं हमेशा उन दोनों की तरफ ही रहती थी उनके पिताजी को किसी न किसी तरह मिला ही लेती थी। यदि कभी मैं राम और श्याम से रूठ जाती थी तो वे दोनों इतने भोले बनकर हमें मनाते थे कि हम दुबारा रूठना भूल जाते थे। उनके पसंद का खाना बनाना, उनके पसंद का पहनावा, उनकी हर एक इच्छाओ को पूरा करना स्वामी जी की पहली प्राथमिकता होती थी, स्वामी जी को भले ही इसके लिए अतिरिक्त कार्य करना पड़ा हो। फिर भी राम और श्याम ले लिए क्या कुछ नहीं किये?पढ़ाई -लिखाई से लेकर, खुद के पैर खड़े होने तक आदि -आदि।

मैं और स्वामी जी न जाने कहां-कहां मत्था टेके होंगे। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तथा गिरिजाघर जिसने जहां कहा। हम वहां गए। अंतिम बार एक भिखारी के कहने पर हम दोनों मां वैष्णो के दरबार गए थे।

मां वैष्णो ने ही प्रसाद स्वरुप हमें दो रत्न दी राम और श्याम।

सवा महीने बाद पुनः मैं और स्वामी जी मां वैष्णो के दरबार गए। दर्शन की। चुनरी चढ़ाई। हम दोनों ने खूब खर्च किये। सभी भीखारियों की झोलिया लड्डुओं से भर दी थी। तब से हर साल मां वैष्णो के दरबार दर्शन करने पहुंच ही जाती थी।

राम और श्याम भी हम दोनों से मोहब्बत करते थे। कभी-कभी वे दोनों स्वयं अपने हाथो से खाना बनाकर हम दोनों को खिलाते थे। मेरा और स्वामी जी का रोज शाम को पैर दबाना उनका नित्य का काम था। पूरे कॉलोनी में राम और श्याम की बड़ी प्रशंसा होती थी। स्कूल में हमेशा वही दोनों टॉप पर रहते थे। स्कूल से लौटने पर झट से आंचल में छिप जाना। लंच न करने का बहाना। उनकी प्यार भरी बातें। सब कहां चली गई। बहुओ के आते ही उनका स्वभाव बदलने लगा। पहले तो लगता था। अभी बच्चे है नासमझ है धीरे-धीरे हालात ठीक हो जायेगा। पर दिन ब दिन घर के हालात बिगड़ते गए। सब कुछ वे दोनों अपनी मर्जी के करते गए। न हम से कोई राय-बात, न स्वामीजी से। मैं तो दांत पीस के रह जाती थी।

पर स्वामीजी के नाते कुछ बोल नहीं पाती थी। ओ तो अक्सर मुझे समझाया करते थे कि देख कौशिल्या ये बच्चे नए जमाने के है इनको अपनी मर्जी से जिंदगी जीने दो। इनके मामले में दखल न करो उसी में भलाई। नहीं तो ये कब क्या जवाब देदे कुछ गारंटी नहीं है। अब हम वृद्ध हो गए। यूं समझ लो चाय में गिरी हुई मक्खी। चुटकी से पकड़कर बाहर करने में देर नहीं लगेगी। किन्तु मैं कहा मानने वाली थी। मैं सोचती थी राम और श्याम मेरे औलाद है क्या इन्हें सही -गलत पर डांट-फटकार नहीं सकती हूं। जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने राम और श्याम को बुलाकर कह दिया कि तुमलोगो की मनमानी नहीं चलेगी। घर में क्या हो रहा है कब मायके कब ससुराल क्या योजना बन रही है हमें भनक तक नहीं लगती। जब जी में आया पर्स उठाके चल दिया। समझ देना अपनी-अपनी बीवियों को यहां रहना है तो हमारी मर्जी से रहे। नहीं तो अपने मायके चली जाये। राम और श्याम को मां की यह बात अच्छी नहीं लगी। वे मां को घूरते हुए अपने कमरे में चले गए।

समय के साथ-साथ मां और पिताजी से राम और श्याम की दूरियां बढने लगी। यह दूरी कब खाई में तब्दील हो गई पता ही नहीं चला।

आये दिन दोनों अपने मां और पिताजी से झगड़ते तो उनकी मां और पिताजी अपना मकान दूसरों को लिख देने की बात करते।

किन्तु किसी के माता -पिता ऐसा नहीं करते है पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाये किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है न ही पिता कुपित होता है।

धीरे-धीरे राम और श्याम मे भी झगड़ा-झंझट होने लगा। और दोनों में बंटवारा हो गया। कौशिल्या और स्वामीजी की तवीयत भी अक्सर खराब रहने लगी। दोनों बेटो ने मिलकर अपने मां और पिताजी को बांट लिया ओ भी पन्द्रह -पंद्रह दिन के लिए। घर के बीचोबीच दीवार खींच गई। वर्षो से साथ-साथ रहने वाले माता -पिता को जब एक-दूसरे की अधिक आवशयकता थी तब उनके कुपुत्रो ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। वे भी साथ-साथ रहने की जिद नहीं कर पाये।

भोर हुई श्याम जब नित्यक्रिया से खाली हुआ। तब याद आया कि मां ने रात में पानी मांगा था। वह पानी लाया।

मां उठो पानी पी लो-श्याम ने कहा।

किन्तु मां तो चिरनिद्रा में जा चुकी थी…………..जब यह खबर स्वामी जी को मिला तो उठाकर जोर से बोले -मैं भी आ रहा हूं कौशिल्या…..तभी तपाक से गिर पड़े। ऐसे गिरे की दुबारा न उठ पाये।

शायद मां वैष्णो ने दोनों को हमेशा के लिए अपने पास बुला लिया हो साथ-साथ रहने के लिए।

(रचनाकार से साभार प्रकाशित)

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