जगदीश तिरोड़कर: एक सौम्य समाजवादी का जाना

प्रेम सिंह

छात्रजीवन से लेकर अभी तक भारत के समाजवादी आंदोलन में थोड़ी-बहुत सक्रियता के चलते इस धारा में सक्रिय बहुत से लोगों से मेल-मुलाकात होती रही है. मिलने-जुलने पर सभी से कुछ न कुछ सीखने-समझने का मौका मिला है. कुछ लोगों से बौद्धिक प्रेरणा, किन्हीं से परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझने की समझ और किन्हीं से विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने की शिक्षा मिलती रही है. प्रत्येक आंदोलन की तरह समाजवादी आंदोलन में भी कुछ ऐसे लोग होते हैं जो निस्पृह भाव से आंदोलन को समृद्ध बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं.

राजनीति में होने के बावजूद वे किसी तरह की स्पर्धा में नहीं होते. आंदोलन में नेता और सिद्धांतकार आते-जाते रहते हैं. सत्ता के दांव-पेच चलते रहते हैं. लेकिन ऐसे लोगों को न नाम की इच्छा होती है, न नेतृत्व की, न सत्ता की. वे हमेशा विनम्रता और ताज़गी से भरे बिना किसी शिकवा-शिकायत के संगठन का काम करते रहते हैं. अपनी सामर्थ्य का अधिकतम योगदान करके वे आंदोलन और संगठन को सींचते हैं. वे राजनीति के बीहड़, जो प्राय: प्रतिमानवीय होता है, में मनुष्यता का संस्पर्श बनाए रखने वाले विरल लोग होते हैं. समाजवादी आंदोलन में साथी जगदीश तिरोड़कर ऐसे ही एक विरल व्यक्ति थे. समाजवादी आंदोलन में एक लम्बा सक्रिय जीवन बिताने के बाद 29 अक्तूबर 2022 को 85 वर्ष की उम्र में अचानक उनका निधन हो गया.

जगदीश जी का जीवन मुझे हमेशा सहज और समतल लगा. हालांकि, उनकी मृत्यु का क्षण नाटकीय था. वे अपनी पुत्री अमिता सामंत और नातिन के साथ अमृतसर से करीब 30  किलोमीटर की दूरी पर स्थित वाघा-अटारी बॉर्डर पर गए थे. वहीं उन्हें अचानक हृदयाघात हुआ. एक मंत्री वहां परेड देखने आए हुए थे. उनके साथ गई एम्बुलेंस में उपलब्ध मेडिकल सहायता जगदीश जी को मिल हो पाई. लेकिन वह पर्याप्त नहीं थी, और वहीं उनका निधन हो गया. संत कवियों ने मृत्यु की अनिवार्यता के साथ अनिश्तिता के सजीव चित्र खींचे हैं. कबीर ने कहा है ‘केस पकर कहं मारिहै कै घर कै परदेस.’ महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी तालुका के एक गांव में जन्मे जगदीश जी को मृत्यु ने घर से इतना दूर जाकर दबोचा – भारत-पाकिस्तान सीमा पर! उनकी बेटी ने बताया कि वाघा-अटारी बॉर्डर पर परेड के नाम पर दोनों देशों के सैनिकों का जो अति उत्तेजनापूर्ण प्रदर्शन होता है, उसका दुष्प्रभाव शांत एवं सौम्य स्वभाव के जगदीश जी पर पड़ा हो सकता है. उनकी श्रद्धांजलि सभा में यह सुझाव आया कि भारत-पाकिस्तान सीमा पर दोनों तरफ से होने वाले उत्तेजनापूर्ण प्रदर्शन का स्वरूप बदला जाना चाहिए.

जगदीश जी से मेरा पहला परिचय 1989-1990 के आस-पास हुआ था. मैं और मेरी पत्नी मुंबई (उस समय बंबई) गए थे. हमें किंग एडवर्ड जॉर्ज मेमोरियल (केईएम) अस्पताल में काम था. हमारे पास बंबई लेबर यूनियन के एक साथी के नाम जॉर्ज फर्नांडिस का पत्र था. यूनियन के कार्यालय में हमारी मुलाकात जगदीश जी से हुई. उन्हें हमें अस्पताल लेकर जाने का जिम्मा सौंपा गया. वे यूनियन के अपने साथियों के साथ पूरा दिन हमारे साथ रहे. अगले दिन भी उन्हीं के साथ हमारा अस्पताल जाना हुआ. पत्नी का कहना है कि हम जगदीश जी के घर भोजन के लिए भी गए थे. मेरी स्मृति में वह घटना नहीं है. इतना याद है कि दो दिन की उस मुलाकात में जगदीश जी की सहजता और सौम्यता का गहरा प्रभाव हम लोगों के ऊपर पड़ा था. उनके बर्ताव में सरोकार के साथ तटस्थता और दृढ़ता (स्ट्रेटफॉरवर्डनेस) थी.

इस मुलाकात के करीब एक दशक बाद समाजवादी जन परिषद के दिनों में वरिष्ठ समाजवादी नेता और लेखक पन्नालाल सुराणा के साथ जगदीश जी से पुन: मुलाकात हुई तो पुरानी स्मृति ताज़ा हो गई. 2011 में सोशलिस्ट पार्टी (भारत) के गठन के साथ जगदीश जी से मिलने का सिलसिला 2019 तक लगातार बना रहा.  

मैं स्थापना से लेकर 2019 तक पार्टी में सक्रिय रहा. जगदीश जी पार्टी की शायद ही कोई बैठक छोड़ते थे. बैठक किसी भी राज्य में हो, वे बैठक की तैयारी से लेकर संपन्न होने तक सहज भाव से काम करते रहते थे. मुझे आश्चर्य होता था कि इतना वरिष्ठ साथी बैठक से जुड़ी सामग्री की फोटोप्रतियां कराने, सहेजने और वितरित करने जैसा काम भी तत्परता और लगन से करता है. जगदीश जी ने जीवन-भर समाजवादी आंदोलन में अपनी विचारधारात्मक निष्ठा के चलते काम किया था. मेरे साथ उन्हें भी काफी खिन्नता का अनुभव होता था जब कई लोग मेहनत और खर्च से तैयार किये गए पार्टी के दस्तावेजों को बैठक-स्थल अथवा ठहरने के कमरे में छोड़ कर चले जाते थे. केवल इसी बात पर मैंने उन्हें परेशान होते हुए पाया. वे प्राय: सभी बैठकों और कार्यक्रमों में पार्टी के साथ सहानुभूति रखने वाले महाराष्ट्र और गोवा के साथियों से चंदा जुटा कर लाते थे. मैं उन्हें कहता था कि आप इतनी तकलीफ क्यों उठाते हैं, तो उनका जवाब होता था कि पार्टी को चलाने के लिए यह जरूरी काम सभी को करना चाहिए.    

महाराष्ट्र ने समाजवादी आंदोलन और देश-दुनिया को कई समाजवादी विचारक/नेता दिए हैं. जगदीश जी पर जरूर उनका प्रभाव रहा होगा. मुझे जब ‘साने गुरूजी कथामाला’ के लिए साने गुरुजी के लेखन का हिंदी में संपादन करने का अवसर मिला तो मेरे मन में यह भाव आया था कि जगदीश जी के व्यक्तित्व में साने गुरुजी की झलक है. साने गुरुजी जी की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद/संपादन का वह काम दो खंडों के प्रकाशन के बाद आगे नहीं बढ़ा. हमें उस अधूरे काम को पूरा करने की तरफ लौटना चाहिए.

जगदीश जी ने पूरा जीवन समाजवादी आंदोलन में लगाया. सोशलिस्ट पार्टी के आलावा वे मजदूर आंदोलन में भी सक्रिय रहे. गोवा-मुक्ति का संघर्ष समाजवादी आंदोलन के पेटे में आता है. जगदीश जी ने 1954-55 के गोवा-मुक्ति सत्याग्रह में हिस्सा लिया था. इस नाते उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्ज़ा भी मिला हुआ था.

इस दुनिया में जगदीश जी जैसे लोग भी होते हैं. राजनीति में भी होते हैं. ऐसे लोग चुपचाप रहते हैं, चुपचाप चले जाते हैं. साधारणता उनके व्यक्तित्व का आभूषण होती है. वैशिष्टय में ही अर्थ खोजने की आदी हो चुकी दुनिया ऐसे लोगों के चले जाने पर खालीपन का अनुभव नहीं करती. इसलिए नोटिस भी नहीं लेती. लेकिन उन्हें कोई शिकवा नहीं होता. रहते हुए नहीं होता तो भला नहीं रहने पर क्योंकर होगा! जगदीश जी के जाने से हमारी धारा के कई साथियों को खालीपन का अहसास देर तक सालता रहेगा. पन्नालाल जी को शायद सबसे ज्यादा.

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि. 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं.)         

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