महंगाई और बेरोजगारी पर सरकार के दामों पर जनता को विश्वास नहीं

-सनत जैन-

अक्टूबर महीने में रिटेल महंगाई घटकर 6.77 फ़ीसदी हो गई है। सितंबर माह में महंगाई की यह दर 7.41 फ़ीसदी थी। यह दावा सरकारी स्तर पर किया गया है। खाने पीने का सामान खासतौर पर सब्जियों और दालों की कीमतों में गिरावट आने की वजह से रिटेल महंगाई में कमी आई है। ऐसा बताया जा रहा है। इसमें सरकार द्वारा सब्जियों की महंगाई का सितंबर माह का जो आंकड़ा 18.05 फ़ीसदी था वह घटकर 7.77 फीसदी पर पहुंच जाने के कारण अक्टूबर माह में महंगाई कम होने का दावा किया जा रहा है। कुछ इसी तरह से सरकार बेरोजगारी को लेकर विगत वर्षों में बड़े-बड़े दावे करती रही है। इसमें ईपीएफ के डाटा का इस्तेमाल सरकार करती है। इसी तरह बैंकों के कर्ज को रोजगार से जोड़ने की बात कहकर बेरोजगारों को, रोजगार देने का दावा समय-समय पर सरकार करती है।

2016 की नोट बंदी और जीएसटी कानून लागू होने के बाद महंगाई और बेरोजगारी के मामले देश में बड़ी तेजी के साथ बढ़े हैं आम आदमी को इसका खामियाजा हर दिन भुगतना पड़ रहा है। सरकार जब इस तरीके के दावे करती हैं। जमीनी हकीकत उससे अलग होती है। इससे धीरे-धीरे आदमी का सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता है। पिछले 5 वर्षों में बेरोजगारी और महंगाई की समस्या बड़ी भयावह हुई है। आम आदमी की आय कम हुई है। करोड़ों लोग बेरोजगार हुए हैं। जो आज भी बेरोजगार हैं। आम आदमी को अपने नियमित जीवन की नियमित जरूरतों को पूरा कर पाने में भारी कठिनाइयां उठानी पड़ रही हैं। ऐसे समय पर सरकारी दावे आम आदमी क़े घाव में नमक छिड़कने का काम करते है। सरकार द्वारा सरकारी आंकड़ों में दावा किया जा रहा है, कि 18 माह के बाद पहली बार थोक महंगाई और खुदरा महंगाई कम हुई है। इस कमी के लिए खाद्य पदार्थ, सब्जियां, फ्यूल लाइट और हाउसिंग के सितंबर और अक्टूबर माह का विश्लेषण कर दावा किया जा रहा है।

आम आदमी जिस तरह से महंगाई के कारण, अपने बच्चों और अपने परिवार की नियमित जरूरत पूरी नहीं कर पा रहा है। फीस और परिवहन इत्यादि के खर्चे नहीं उठा पा रहा है। कर्ज की किस्त समय पर अदा नहीं कर पा रहा है। आय कम होती जा रही है। खर्च बढ़ते जा रहे है। सरकार के अपने आंकड़े होते हैं। जिन्हें सरकारी अधिकारी, सरकार की मंशा के अनुसार पेश करते हैं। जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत होती है। इससे जनता का विश्वास और नाराजी दोनों ही बढ़ती जा रही हैं।

केंद्र सरकार ने जिस तरह के नियम बना रखे हैं। उस में मजदूरों को या नौकरी करने वाले का ब्योरा पीएफ के लिए नियोक्ता, अथवा ठेकेदारों के लिए जरूरी होता है। भारत में करोड़ों मजदूर एक जगह से दूसरी जगह पर जाकर कुछ समय या कुछ दिन मजदूरी करते हैं। ठेकेदार इन का पीएफ काटता है, और उसे पोर्टल पर दर्ज कर देता है। जबकि उन मजदूरों को पता ही नहीं होता है, उनका पीएफ काटा गया है। उस राशि पर मजदूर दावा भी नहीं कर सकते हैं। पिछले कई वर्षों से पीएफ में अनक्लेम राशि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की अरबों खरबों रुपए में पीएफ में पड़ी हुई है। ठेकेदार और कंपनियां इसमें भी बड़ा गोलमाल करती हैं। आधा अधूरा पैसा पीएफ खाते में जमा किया जाता है। असंगठित क्षेत्र के ठेका मजदूरों को कभी इसका लाभ नहीं मिला।

इसी तरह छोटे छोटे व्यापारियों रेहडी वाले स्व सहायता संगठनों ने कोविड-19 के बाद बड़े पैमाने पर बैंकों से कर्जा लिया है। यह पहले भी रोजगार कर रहे थे। करोना के बाद आर्थिक संकट के समय इन्होंने बैंकों से कर्ज लिया। बड़ी संख्या में कारोवारी डिफाल्टर हो रहे हैं। क्योंकि यह अपनी कर्ज को नहीं चुका पा रहे हैं। बैंक, कर्ज वसूली के लिए इन्हें लगातार प्रताड़ित कर रहे हैं। प्राथमिकता क्षेत्र में दिए गए कर्ज की राशि एनपीए में बढ़ती ही जा रही है। इसके बाद भी सरकार बेरोजगारी और महंगाई को नियंत्रित करने की बात करती है। तो आम आदमी का गुस्सा इन सव कारणों से बढ़ता है।

पिछले कुछ वर्षों से सरकार द्वारा आंकड़ों में जो पुराने परंपरागत तरीके थे। उनमें काफी बदलाव किया गया है। सरकार द्वारा स्पष्टता से आंकड़े भी जारी नहीं किए जा रहे हैं। जिसके कारण सरकार के प्रति पढ़े लिखे लोगों का भी विश्वास कम हो रहा है। वहीं आम आदमी जब सरकार के दावों और हकीकत को जोड़कर देखते हैं। तो उन्हें भी सरकार के दावों पर विश्वास नहीं हो पाता है। केंद्र एवं राज्य सरकारों को जनता की कठिनाइयों को समझना होगा। टैक्स और करों को घटाना होगा। आम आदमी की आय बढ़ानी होगी। असंगठित क्षेत्र और रिटेल सेक्टर को भारत में जब तक संरक्षित नहीं किया जाएगा। महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्या से निजात नहीं पाई जा सकती है। यह सरकार को समझना होगा।

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