सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता दांव पर

-सनत कुमार जैन-

सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों और शीर्ष अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर, केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर नाराजगी व्यक्त की है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय विधि सचिव से जवाब तलब किया है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ती अभय एस ओका की खंडपीठ ने कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को लंबे समय तक लंबित रखना, नामों को मंजूरी नहीं देना तथा कॉलेजियम से भेजे गए नामों पर पुनर्विचार की मांग करना, कॉलेजियम द्वारा पुनः नाम भेज दिए जाने के बाद भी नियुक्ति नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट अब सख्त रूख अपनाया है। बेंगलुरु की एडवोकेट एसोसिएशन की याचिका पर सुनवाई करते हुए, खंडपीठ ने केंद्र सरकार के पास मंजूरी के लिए जो 11 नाम लंबित हैं। उनमें एक सबसे पुराना, सितंबर 2021 का भी नाम है। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों के बारे में केंद्र सरकार की चुप्पी को आश्चर्यजनक बताया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा केंद्र सरकार ना तो अपनी आपत्ति का कोई कारण बताती है। नाही नियुक्ति करती है। कॉलेजियम के नामों को लंबे समय तक लंबित रखा जाता है जो एक तरह से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अवमानना है।

केंद्रीय विधि मंत्री कई बार सार्वजनिक मंच से कॉलेजियम को लेकर अपनी आपत्ति जता चुके हैं। पिछले कई वर्षों से कॉलेजियम की अनुशंसा को केन्द्र सरकार के विधि मंत्रालय के बीच तकरार देखने को मिल रही है। केंद्र सरकार जिन नामों को स्वीकार करती है, उन्हें ही नियुक्ति देती है। बाकी अनुशंसा को रोक कर बैठ जाती हैं। इसको सुप्रीम कोर्ट ने अब गंभीरता से लिया है। सरकार न्यायपालिका के लिए हमेशा एक लक्ष्मणरेखा की बात करती है। केंद्र सरकार की मंशा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को अपने प्रभाव में रखने के लिए है। शायद इसलिये इस तरीके की कार्रवाई करती है। संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर यह सीधे-सीधे आघात है।

कार्यपालिका और विधायिका के किसी भी निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार, संविधान ने न्यायपालिका को दिया है। मौलिक अधिकारों की रक्षा करने एवं विधायिका और प्रशासन के कामों पर नियंत्रण रखने का सर्वोच्च अधिकार, न्यायपालिका के पास है। वर्तमान केंद्र सरकार बार-बार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को कानून बनाने की शक्ति को लेकर लक्ष्मण रेखा की बात कर रही है। सरकार और विधायिका को यह भी ध्यान रखना होगा। सरकारें, मौलिक अधिकारों के हनन या छेड़छाड़ करने वाले कोई कानून नहीं बना सकती हैं। यदि सरकारें ऐसा कोई कानून, नियम अथवा कोई निर्देश बनाती हैं। न्यायपालिका को अधिकार है, वह बनाए हुए कानून उसके नियम सरकार और प्रशासन के निर्देश को निरस्तकरने का सर्वोच्च अधिकार है। सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के इसी अधिकार को बाधित करने तथा यह जतलाने का प्रयास कर रही है कि विधायका सर्वोच्च है. कॉलेजियम को लेकर जो धारणा सरकार द्वारा पिछले वर्षों में निरंतर न्यायपालिका के बारे में बनाई जा रही है। न्यायपालिका के ऊपर सरकार द्वारा जो दबाव बनाया जा रहा है। उसमें केंद्र सरकार कुछ हद तक सफल भी हुई है। पिछले वर्षों में जिस तरह से केंद्र सरकार ने मनमाने तरीके से न्यायाधीशों की नियुक्ति की है। समय-समय पर न्यायपालिका के निर्णयों की अनदेखी की है। उसके बाद से यह टकराव बढ़ता जा रहा है। देखते हैं, बेंगलुरु एडवोकेट एसोसिएशन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या आदेश कर पाती है।

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