खरीद+फरोख्त = गणित

-सुशील देव-

खरीद-फरोख्त चालू हो गया अब। नेता टिकट खरीदने के लिए पार्टी आलाकमान की दुकान के चक्कर काटने लगे। कई पार्टियों के दिग्गज मोटे हशामी वाले उम्मीदवारों की तलाश में लग गए। एमसीडी चुनाव की डेट आने के बाद इस काम में तेजी आ गई। पार्टी अध्यक्षों की चिंताएं बढ़ गई, तनाव बढ़ गया। उन्हें जिताऊ उम्मीदवार तो चाहिए मगर वह खिलाऊ भी हो तो और अच्छा। यानी ऐसे उम्मीदवारों की तलाश को प्राथमिकता दी जा रही है जो आर्थिक रूप से मजबूत हैं। धनाढ्य हैं। महंगाई बहुत है, इसलिए चुनाव प्रबंधन में खर्चा भी ज्यादा होना है। यह सोचकर धनबल को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा है। कौन सी पार्टी की बात करें, करीब-करीब हर पार्टी के यही हाल हैं। नई-पुरानी दोनों एक ही नक्शे कदम पर। नए चेहरे को आगे लाने के चक्कर में इस बार पार्टियों को नया बहाना मिल गया है। मगर सच्चाई यह है कि नए चेहरों में धनबल की चमक ज्यादा दिखाई दे रही है। कुछ चेहरे तो बेहद हताश व निराश दिखाई दे रहे हैं। उनके अंदर धनबल का कॉन्फिडेंस नहीं है। दिल्ली का चुनाव साधारण नहीं है। असाधारण है। यहां धनबल के बाद बाहुबल का नंबर आता है जो कुछ ही इलाके में दिखाई देता है। इसकी मात्रा अल्प है। राजधानी शहर दिल्ली में व्यवसायी या कारोबारी ज्यादा हैं। कुछ लोग तो जमींन बेचकर भी टिकट खरीद लेते हैं। यहां किसी भी पार्टी में टिकट के खरीदार आर्थिक रूप से कमजोर नहीं हैं। कुछ तो ऐसे उम्मीदवार भी हैं जो खानदानी रईस हैं या फिर विरासत में उन्हें अकूत संपत्ति हासिल है। ऐसे राजा भोजों के बीच कोई गंगू तेली कहां टिकता है।

तो ध्यान रखिएगा, दिल्ली शहर में निगम का चुनाव यूपी-बिहार के किसी एमएलए के चुनाव से कम नहीं होता। वैसे भी तीनों निगमों को एक किए जाने के बाद से यह चुनाव और भारी-भरकम हो गया है। इस चुनाव में भी खूब खर्च किए जाते हैं, पैसे लुटाए जाते हैं। तोहफे की बरसात और शराब की नदियां बह जाती हैं। मतदाताओं को खरीदने के लिए तमाम जुगत लगाए जाते हैं। औकात के मुताबिक उनकी कीमत लगाई जाती है और आखिरकार नेता जनता को खरीदने के प्रपंच में कामयाबी हासिल कर लेते हैं। नामांकन जारी है तो मोल-भाव भी लाजिमी है। मुख्य राजनीतिक दलों ने अभी अपने भावी उम्मीदवारों की सूची नहीं जारी की है, मगर उनके मुख्यालयों में दावेदारों के लंबी कतार है, मेला है, मजमा है। वहां एक से बढ़कर एक खरीदारों की फौज खड़ी हुई है। खरीद-फरोख्त के इस बाजार में उनका क्या होगा जो पैसों के बिना यह सपना देखते हैं। आप ही बताएं जो खरीदेंगे और जो खरीदे जाएंगे, वह भला जनता का साथ क्या निभाएंगे? हमारे देश की राजनीति का यही सच है। यही असली चेहरा है जिसे हम सभी को पहचानने की जरूरत है। बड़ी-बड़ी पार्टियों के नुमाइंदे अपने आकाओं के चेहरे बेचकर जीत रहे हैं तो हजारों भावी उम्मीदवार ईमानदारी या सच्चाई पर चलते हुए कहीं दूर हाशिए पर खड़े हैं। उनके पास चुनाव लड़ने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं। कुछ लोग तो तंज कसते हैं कि जब आपके पास पैसे नहीं तो चुनाव लड़ने की सोच भी कैसे रहे हैं? वहीं चुनाव आयोग के खर्च की बंदिशें भी महज एक नौटंकी लगती है, जब किसी भी उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमाएं तय करता है। बहरहाल, बहस के लिए अभी बहुत कुछ है मगर इतना तय है कि इस बार दिल्ली में एमसीडी के चुनाव को लेकर चुनौतियां भी पहले से बढ़ी हुई है। समस्याओं की भरमार है। सफाई, प्रदूषण और कूड़ा-कचरा प्रबंधन मुख्य मुद्दा है, तो प्राइमरी स्कूलों और रेहड़ी पटरी वालों की समस्याएं भी कम नहीं है। इन सभी बुनियादी समस्याओं का समाधान कैसे संभव होगा। जब इस छोटे से चुनाव में चुनाव आयोग के लाख मना करने के बावजूद लाखों-करोड़ों रुपए फूंक देते हैं।

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