फूट तंत्र से बचना देश की आवश्यकता

-कुलभूषण उपमन्यु-

आज मैं एक ऐसे विषय पर लिख रहा हूं जिस पर बात करने से हर तरफ से आलोचना का खतरा है। फिर भी मुझे लगा कि जरूर लिखना चाहिए तो लिख रहा हूं, इस आशा के साथ कि हम सब आत्म अवलोकन की दिशा में बढ़ कर देश और समाज के व्यापक हित को देखते हुए एकता बढ़ाने की बात पर विचार करें। फूट फैलाना एक ऐसी कला है जिसमें आदमी सही बात को गलत और गलत को सही दिखाने की महारत रखता है। आम घरों में भी हम पाते हैं कि एक आध व्यक्ति इस भूमिका में रहता है और कुछ का कुछ बात का बतंगड़ बनाता रहता है या गई बीती बातों को पुन: पुन: जागृत करके प्रतिगामी सोच के द्वारा फूट डालने में रत रहता है। गांव घर तक तो ये बातें छोटा दु:ख पैदा करती हैं किन्तु जब ये फूट तंत्र देश और समग्र समाज के स्तर पर सक्रिय होता है तो इसके पीछे बड़े खिलाड़ी, और बड़े षड्यंत्र काम कर रहे होते हैं, जिसके लिए नए नए झूठ घड़े जाते हैं, इतिहास से खिलवाड़ किए जाते हैं, देश गुलाम किए जाते हैं या अपनी मूर्खताओं से फूट का शिकार होकर गुलाम हो जाते हैं। इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। आज भी वे प्रक्रियाएं सक्रिय हैं। हमें तो अपने देश की ही बात करनी है।

 

भारत सदियों गुलामी का शिकार रहा, जिसका सबसे बड़ा कारण हमारी आंतरिक और बाहरी कारणों से पड़ी फूट ही थी। हम इकठ्ठे होकर लड़ते तो न उत्तरी दिशा से आने वाले आक्रमणकारी हम पर हावी होते और न व्यापार के नाम पर घुसने वाले अंग्रेज ही अपनी समुद्री शक्ति के बूते पैर जमा पाते। हमारे अंदर छुआछूत की बीमारी से व्याप्त फूट का लाभ सभी आक्रमणकारियों ने उठाया है, और जब वे यहां पैठ बना चुके तो उन्होंने इसी छुआछूत को धर्मांतरण का माध्यम बना लिया और हमारे ही अपने लोगों को हमारे ही विरुद्ध अपना हमदर्द बना लिया। वह प्रक्रिया आज तक चल रही है। हम अभी तक भी छुआछूत वाली मानसिकता को पूर्णत: समाप्त नहीं कर पाए हैं, हालांकि आज़ादी मिलने के बाद से स्थिति में काफी सुधार हुआ है। हम आगे बढ़े हैं, यह हमें मानना होगा। तभी हम और आगे बढ़ सकेंगे और इस अमानवीय बीमारी से मुक्त हो सकेंगे। किंतु इसके लिए हमें वर्तमान की कमियों को सुधारते हुए जो प्राप्त किया है, उसका गौरव करना भी सीखना होगा। यदि हम संतुलित सोच न रख कर केवल कमियों को ही बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित करते रहेंगे तो एक ओर हम हतोत्साहित होंगे और दूसरी ओर हममें फूट पैदा होगी जिससे हमारी सकारात्मक शक्ति कमजोर होगी और देश और समाज पीछे जाएगा। इसका लाभ कौन उठाएगा, जो फूट डाल कर शासन पर कब्जा करना चाहता है।

 

जैसा मुस्लिम आक्रांताओं या अंग्रेजों ने उठाया। समाज की आंतरिक फूट और राजाओं रजवाड़ों के बीच की फूट, दोनों ने विदेशियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग देकर देश को गुलाम बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। इतिहास इन कहानियों से भरा पड़ा है जिसमें जाने की जरूरत नहीं है। सोचना यह जरूरी है कि हम आज क्या कर रहे हैं कि क्या हम फूट को बढ़ाने के काम कर रहे हैं या एकता को बढ़ाने के। एकता बढ़ाने का सबसे जरूरी काम तो यह है कि हम जाति, धर्म, भाषा, इलाकावाद से ऊपर उठ कर समानता और मानवीय गरिमा की स्थापना करने में जुट जाएं, और पुरातन फूट डालने वाली बातों को भूलते जाएं और एकता बढ़ाने वाली बातों को प्रचारित करें। जहां अन्याय दीखता है, उसके खिलाफ इकठ्ठे होकर आवाज उठाएं। आरक्षण विरोध भी आज फूट का एक मुद्दा बना हुआ है। यह ठीक है कि आरक्षण एक अस्थाई व्यवस्था थी, किन्तु जब तक आरक्षण के पात्र दलित पिछड़े वर्ग आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रतिस्पर्धा योग्य नहीं हो जाते तब तक आरक्षण बना रहना चाहिए। हां उसमें कुछ सुधार की समयानुसार जरूरत रहेगी। वर्तमान में क्रीमी लेयर का प्रावधान सब तरह के आरक्षण पर लागू होना चाहिए क्योंकि आरक्षित श्रेणी के वे परिवार जो आरक्षण का लाभ उठा कर आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रतिस्पर्धा योग्य हो चुके हैं, वही परिवार बार-बार आरक्षण का लाभ उठाते रहेंगे तो अन्य पिछड़ गए उनकी ही श्रेणी के लोगों की बारी कब आएगी। बिना आरक्षण का प्रतिशत घटाए यह प्रावधान लागू करने से वंचित वर्ग में छूट गए लोगों को इसका लाभ मिलेगा, इसका सभी को स्वागत करना चाहिए। इसी तरह धार्मिक मामलों में फूट का बड़ा कारण अन्य धर्मों के खिलाफ घृणा फैलाने का काम है।

 

जाकिर नायक जैसे लोग खुलेआम अपने से भिन्न धर्मों को घटिया साबित करने का तर्कहीन प्रचार करते रहते हैं और इस तरह के लोग अन्य सभी धर्मों में भी सक्रिय रहते हैं। कुछ तो स्वभाव से भी और कुछ प्रतिक्रिया स्वरूप अपने से भिन्न धर्म की निंदा करने में जुट जाते हैं। इस निंदा का उपयोग बाद में धर्मांतरण में किया जाता है, इससे एक खतरे का एहसास पैदा होता है जो आपसी भाईचारे को हानि पहुंचाता है। हम जानते हैं कि हमें इस देश में इकठ्ठे ही जीना-मरना है और हम सदियों से इकठ्ठे रहते भी आए हैं। इस दौरान हमने आपसी सद्भाव बनाने के तरीके भी निकाल लिए हैं। उन पर ध्यान देना चाहिए। आईएसआईएस ब्रांड इस्लाम का जो प्रचार दुनिया भर में पिछले कुछ दशकों में बढ़ा है उससे एक खतरे का एहसास भी बढ़ा है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ दूसरे धर्म, हिंदू धर्म सहित उलटे सीधे वक्तव्य देने लगते हैं। यह रुकना चाहिए। हालांकि मुस्लिम बहुसंख्या भी आईएसआईएस ब्रांड के खिलाफ ही है। असल में कोई भी धर्म घटिया नहीं है और कोई भी धर्म पूर्ण भी नहीं है। समय के अनुसार जरूरतें बदलती हैं, रस्म रिवाज और धर्मों के भाष्य भी बदलते हैं, हां मूल तत्व स्थिर रहता है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। केवल यही ध्यान देने की बात है कि अपने अपने धर्म का हम ध्यान रखें, दूसरे के धर्म में हस्तक्षेप न करें। धर्म का मूल तत्व तो पूजा और साधना पद्धति है। धार्मिक रस्म रिवाज तो देश काल के अनुसार बदलते रहते हैं। हमें तो हर धर्म का आदर करना सीखना होगा और आपसी मेल जोल के उदाहरणों का प्रचार करना चाहिए, न कि फूट डालने वाले उदाहरणों का। कुछ ऐसे समूह भी भारत में सक्रिय हैं जो हिंदू धर्म की पेचीदगियों को बिना समझे मनमानी आलोचना में जुटे रहते हैं। उनका मकसद केवल आंतरिक फूट को बढ़ा कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना है। जहां उन्हें ठीक बैठता है वहां वे हमारी पौराणिक कथाओं को मिथक कह कर दरकिनार कर देते हैं और जहां उन्हें दूसरी बात ठीक बैठती है वहां वे उन्हीं प्रसंगों को वास्तविक इतिहास बता कर पेश करते हैं। षड्यंत्रों को पहचानना भी एकता के लिए उतना ही जरूरी है जितना आपसी प्यार मुहब्बत को बढ़ाने वाले प्रयासों को समझना है।

 

(लेखक हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष है)

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