शिक्षक दिवस विशेष : शिक्षकों के आत्मचिंतन और आत्ममंथन का पर्व बने शिक्षक दिवस
-सुरेन्द्र किशोरी–
हर वर्ष पांच सितम्बर को भारत में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इनका जन्म दक्षिण भारत के तमिलनाडु के तिरुटन्नी में पांच सितम्बर 1888 को हुआ तथा इन्हें भारतीय दर्शन का इतना गहरा ज्ञान था कि इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए दुनिया के कई देशों से इन्हें आमंत्रण मिलते रहता था। लोग इनके व्याख्यानों को बड़ी ही रुचि के साथ सुनते थे और भारतीय दर्शन के मर्म को समझते थे।
इनके आकर्षक व्यक्तित्व का सम्मान करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ”सर” की उपाधि प्रदान की। एक आदर्श शिक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले स्वतंत्र भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की, ताकि लोग शिक्षकों का सम्मान करें, उनके महत्त्व को समझें। आज भी देश में शिक्षा की क्रांति लाने में सबसे अहम भूमिका शिक्षकगणों की है।
आज लोग शिक्षा के महत्त्व को समझते हैं, अनपढ़ रहने में शर्म और संकोच महसूस करते हैं, पढ़ने में अपनी शान समझते हैं। गरीब से गरीब परिवार के लोग भी आज अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विद्यालय भेजने लगे हैं। यह शिक्षा के क्षेत्र में एक जबरदस्त क्रांति है, जिसमें शिक्षकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन फिर भी आज शिक्षा के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय प्रगति होनी चाहिए, वह दिखती प्रतीत नहीं होती है।
हमारे देश की यह कड़वी सच्चाई है कि आज भी देश के बहुसंख्यक प्राथमिक विद्यालय-शिक्षकों की कमी, ढांचागत बदहाली और खराब व्यवस्था का दंश झेल रहे हैं। आज भी देश के अधिकतर राज्यों में ज्यादातर प्राथमिक विद्यालय महज एक-दो शिक्षकों के भरोसे हैं। सरकार के द्वारा शिक्षा के नाम पर अरबों-खरबों रुपये खर्च किए जाने के बाद भी शिक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। स्थिति यह है कि विद्यालयों के लिए ना तो पर्याप्त भवन उपलब्ध हैं और ना ही पर्याप्त शिक्षक, कहीं भवन है तो शिक्षक नहीं, कहीं शिक्षक है तो भवन नहीं।
शिक्षा के नाम पर सरकारी विद्यालयों में बच्चों को निःशुल्क पुस्तकें, ड्रेस, कॉपी, कलम इत्यादि दिए जाते हैं, मध्याह्न भोजन दिया जाता है। लेकिन फिर भी शिक्षा की स्थिति इतनी दयनीय है कि कोई भी मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में पढ़ान पसंद नहीं करता है। इसके बदले वे अधिक फीस देकर प्राइवेट (निजी) विद्यालयों में पढ़ाना पसंद करते हैं। अभिभावक भी अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए प्राइवेट स्कूलों में भेजना अधिक पसंद करते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें विद्यालय की अधिक फीस क्यों ना चुकानी पड़े।
आज प्राथमिक स्तर पर ही बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराने की फीस इतनी ज्यादा है, जिसे सामान्य वर्ग का व्यक्ति आसानी से नहीं चुका सकता है। फिर उच्च शिक्षा की बात ही क्या की जाए? शिक्षा का मूल्य नहीं चुका पाने के कारण हमारे देश में ना जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ देती हैं और पैसे कमाने के लिए विकल्प तलाशने लगती है।
यदि सही मायने में देश में कोई ऐसी व्यवस्था होती, जिससे प्रतिभावान छात्र-छात्राओं का निःशुल्क रूप से चयन हो पाता और उनकी पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी लेने के साथ उनकी प्रतिभा का देश के लिए उपयोग हो पाता तो देश आज प्रतिभावान नागरिकों से सुशोभित होता। हमारा देश प्रतिभावान विद्यार्थियों की खान है, यहां ऐसी-ऐसी प्रतिभाएं दबी-छिपी हैं, जिनका सही आकलन भी संभव नहीं।
लेकिन इन प्रतिभाओं को ना तो सही सम्मान मिलता और ना ही प्रोत्साहन। इसके विपरीत निराशा, हताशा अधिक मिलती है, जीने की सही राह नहीं दिखती, जिसके कारण अधिकांश प्रतिभाएं यूं ही दम तोड़ देती हैं। जीवन में संघर्ष करने के लिए गलत मार्ग का चयन कर लेती हैं या देश से पलायन करके विदेशों में चली जाती हैं और वहां अपना नाम कमाती हैं। दुर्भाग्यवश ये अपने व्यक्तिगत जीवन में उन्नति नहीं कर पाते, क्योंकि इसके लिए जरूरी शिक्षण इन्हें पाठ्यक्रम से नहीं मिल पाता है और ना ही ऐसे लोग मिलते हैं जो इनके जीवन को सही दिशा दे सकें।
वास्तव में आज ऐसे शिक्षकों की जरूरत है, जो पाठ्यक्रम का शिक्षण देने के साथ जीवन को संवारने वाला शिक्षण भी अपने व्यक्तित्व से दे सकें। ऐसे ही जबरदस्त व्यक्तित्व के स्वामी थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। वह एक ऐसे आदर्श शिक्षक थे, जिन्होंने ना केवल व्याख्यानों के माध्यम से भारतीय दर्शन का मर्म समझाया, बल्कि, अपने व्यक्तित्व के माध्यम से भी शिक्षण दिया। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है व्यक्तित्व गढ़ना। यदि शिक्षा के माध्यम से केवल जीवन के आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति होती है और व्यक्तित्व निर्माण का उद्देश्य अधूरा रह जाता है तो ऐसी शिक्षा अधूरी है, एकांकी है।
शिक्षा एवं चिकित्सा दो ऐसे कर्म हैं, जिनके माध्यम से सेवा का दायित्व पूरा होता है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व संवरता है और चिकित्सा के माध्यम से जीवन का संरक्षण होता है। शिक्षा अर्जन के द्वारा ना केवल व्यक्तिगत जीवन में लाभ मिलता है, बल्कि इसके द्वारा दूसरों का जीवन भी लाभान्वित होता है। इसी कारण शिक्षण की महत्ता बहुत है, लेकिन आज के परिदृश्य में शिक्षा का सेवायुक्त भाव समाप्त दिखता है और व्यावसायिक महत्त्व अधिक दिखता है। विद्यालय शिक्षाशाला कम व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में दिखने लगा है।
इसी कारण आज शिक्षा व्यक्ति के जीवन को आंतरिक दृष्टि से लाभान्वित नहीं कर पा रही; क्योंकि शिक्षा से जुड़ा हुआ सेवाभाव खत्म होने से व्यक्ति के अंदर की संवेदनाएं समाप्त हो रही हैं। इसी कारण है कि अब शिक्षक शिक्षा का दान सेवा के भाव से नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से लाभ कमाने के लिए करने लगे हैं। एक समय था जब देश आर्थिक दृष्टि से संपन्न नहीं था, फिर भी देश में एक-से-एक विचारवान प्रतिभाशाली व्यक्ति उभरकर आए थे।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी गंभीर, हृदयस्पर्शी भावनाओं को अखबारों में व्यक्त किया, कविताओं में पिरोया, भाषण आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी अभिव्यक्तियां लोगों के दिलोदिमाग पर छा गईं, उनका व्यक्तित्व लोगों की आंखों में बस गया। यह सब हुआ ज्ञानार्जन और आत्ममंथन से, इसी कड़ी में जब डॉ. राधाकृष्णन सम्मिलित हुए तो देश-विदेशों में इस कदर छा गए कि उनके विचारों को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी।
उन्होंने एक शिक्षक होने का अपना दायित्व पूरा किया, पूरी निष्ठा से गंभीर अध्ययन, मनन-चिंतन के पश्चात अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी, अपनी प्रतिभा को तराशा और मिलने वाले अवसरों ने उन्हें देश में ही नहीं, विदेशों में भी प्रख्यात कर दिया। यह एक मिसाल है शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए कि वे अपने विषय की गहराई में जाएं, गंभीरता से किसी भी विषय को समझें और फिर उसे अभिव्यक्ति दें। शिक्षा और शिक्षण के वास्तविक महत्त्व को समझें, इसे जीवन में उतारें, इससे व्यक्तित्व संवारें।
जब वास्तव में सभी शिक्षक अपने शिक्षण के दायित्व को समझेंगे, गंभीरता से अपने इस कर्त्तव्य को निभाएंगे तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत प्राचीन काल की तरह एक बार फिर जगतगुरु बनकर पूरे विश्व को शिक्षा देगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति में शिक्षकों के सम्मान के लिए समर्पित शिक्षक दिवस केवल प्रतीक पर्व बनकर नहीं रह जाए, बल्कि यह शिक्षकों के आत्मचिंतन एवं आत्ममंथन का पर्व बने। लेकिन इसके लिए सिर्फ शिक्षकों को ही नहीं सोचना होगा वल्कि सरकार और समाज सभी इसके लिए गंभीरता पूर्वक कार्य करें तो एक ना एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत पूरे दुनिया को नया रास्ता दिखा रहा है तो सबके गहन चिंतन, मनन और अभ्यास से भारत शिक्षा के विश्व गुरु रूप में पुनर्स्थापित होगा।