अहिल्या…

-तहसीन मजहर-

तुम्हें है सिर्फ अपनी दुनिया से मुहब्बत
तुम चाहते हो एक अलग आशियाना
जो शायद मेरी तरह नहीं,
और मैं टूटती चली जाती हूं
पतझड़ बनकर बिखरती हुई
किरचों में बिखरी हुई मैं
खुद को जोड़ने की जद्दोजहद में हार जाती हूं,
लेकिन मुझे टिकना है
इस दुनिया की भीड़ में
पर तुम उस दौड़ का हिस्सा बन दौड़े जा रहे हो
जहां पहुंचते ही मेरे भीतर
बहुत कुछ दूर होता चला जाता है,
समझाना मुश्किल है
कैसे जाने दूं , कैसै भूल जाउं उसे
जो हर राह पर टिक कर खड़ा रहा
साथ मेरे, सहारा बनकर
जिसने थामी मेरी हथेलियां, जैसे मैं हूं कोई छोटी बच्ची,
अब क्या कहूं
तुमसे हजार शिकायतों के बावजूद
अंत में वहीं पहुंच जाती हूं, जहां से शुरू हुई थी.
बस इतना समझ लो
तुम मर्यादापुरुषोत्तम भले हो जाओ
मुझे नहीं जरूरत तुम्हारे स्पर्श की,
मैं हो ही नहीं सकती पत्थर
किसी के श्राप से…।

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