समीक्षा : तेंतर (कहानी)

-मुंशी प्रेमचंद-

कई बार मैंने भी बचपन में अपनी दादी के मुंह से यह कहते सुना था कि तेंतर बच्चे बहुत ही खुराफाती, झगड़ालू, गुस्से वाले और अशुभ होते है। उनके वजह से घर में हमेशा अशांति और लड़ाई-झगड़े का माहौल बना रहता है क्योंकि मेरी ही दादी के इकलौते पुत्र अर्थात मेरे पिताजी एक तेंतर पुत्र थे। जो अपनी तीन बड़ी बहनों के बाद बड़ी मन्नतों और आश के बाद जन्मे थे। पर यहां परिस्थिति ठीक उलट थी क्योंकि “तेंतर” नामक पुस्तक में लेखक ने तीन लड़कों के बाद जन्म लेने वाली लड़की का उल्लेख किया है जिसे पहले से ही हमारे पुरुष प्रधान समाज में एक आफ़त व चिंता के रूप में देखा जाता है। और कही न कही यह धारणा आज भी हमारे समाज से पूरी तरह से खत्म नहीं हो पायी है क्योंकि हमने  भले ही बाहरी तौर पर बड़ी – बड़ी बाते व भाषणबाजी करते हुये बहुत से लोगों को देखा होगा। पर अंदर से असलियत और कुछ ही होती है ठीक वैसे ही जैसे एक रंगा सियार। अगर हम गौर फरमाए तो पाएँगे कि स्वतन्त्रता के बाद से भारत में स्त्रियों को लेकर काफी हद तक लोगों की धारणा बदली है और इन सभी विपरीत समस्याओं के बावजूद आज स्थितियाँ काफी बदली है पर अभी भी रही-सही कसर बची है। आज के वैज्ञानिक युग में हम अन्तरिक्ष तक भले पहुँच गए है, पर आज भी जमीन पर बहुत से ऐसे जगह है जहां पर तेंतर, नर-बलि, तंत्र-मंत्र आदि बहुत सारे अंधविश्वास लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी पैठ बनाए हुये है।

कहना न होगा कि प्रेमचंद ने अपने समय के समाज में जो कुछ भी देखा उसका हूबहू सजीव चित्रण भी किया जो आज के समय में हमें रास्ता दिखाने का भी काम करता है। लड़कियों के जन्म को लेकर बनी हुयी रूढ़ एकांकी मानसिकता और घोर निराशा व चिंता को देखते हुये एक लेखक ने सभी को आगाह करने का प्रयास किया है। एक पाठक होने के नाते हमें भी इस समाज में देखने को मिलता है कि कैसे एक लड़की को बचपन से ही कई तरह के अभाव व समस्याओं से समझौता करना पड़ता है। उसे हर मोड़ पर रोका और टोका जाता है कि “ऐसे मत करो, इस तरह मत रहो, नहीं तो लोग क्या कहेंगे” आदि आदि। यह कोई सामान्य बात नहीं है अगर हम कहानी के प्रारम्भ में ही देखे तो पहली पंक्ति में ही लिखा है कि-“आखिर वही हुआ जिसका डर था। तीन लड़कों के बाद लड़की जन्मी। मां सुख गई, बाप बाहर आँगन में सूख गए और बूढ़ी दादी सौर के दरवाजे पर बुड़बुड़ा रही थी-अनर्थ, महाअनर्थ, भगवान ही कुशल करें।

यह बेटी नहीं राक्षसी है”। इस पूरी कहानी में मुख्य रूप से समाज में एक तेंतर लड़की को लेकर फैले हुये अंधविश्वास पर चोट किया गया है जो कही न कही हमारे बीच के कुछ परम्परागत व रूढ़ सोच रखने वाले लोगों द्वारा प्रसारित किया जाता है। और जो व्यक्ति इन अंधविश्वासों में यकीन नहीं करता उसे भी इन अंधविश्वास से भरे चंगुल में फसाने के लिए वह परंपरावादी सोच रखने वाले लोग किस हद तक गिर जाते है इस पर भी लेखक ने अपनी लेखनी चलायी है। जैसे- कहानी में लड़की का पिता जिसका नाम दामोदर है वह इन अंधविश्वास पर यकीन नहीं करता है पर कही न कही वह भी अपनी माँ के बातों से थोड़ा घबराये हुए था। दामोदर कि माँ ने तेंतर नाम के अंधविश्वास को सभी के दिलों-दिमाग में भर दिया और फिर सभी उसी सोच में दिन रात सोचते रहते, कि यह लड़की तो जरूर किसी न किसी को खाकर ही दम लेगी। पर यहां ठीक इसके विपरीत मेरे जहन में एक ख्याल आता है कि क्या केवल लड़कियाँ ही तेंतर होती है लड़के तेंतर नहीं होते। अगर होते है तो फिर ठीक इसी तरह की घोर रूढ़ मानसिकता उनके लिए क्यों नहीं होती है।

क्योंकि मेरे अपने पिता तो स्वयं तेंतर थे पर दादी कहती थी कि वह उनसे तो बहुत लाड-प्यार करती थी क्यों न करें तीन लड़कियों के बाद बड़े मन्नतों के बाद जो जन्मे थे। अतः जो लोग इन अंधविश्वासों को सींचकर हरा-भरा व सघन करते है वही कही न कही कुछ जगहों पर ठीक इसके उलट भी खड़े रहते है। तो यहां जरूरी है कि हम और आप सभी को इस तरह के अंधविश्वासों का कड़े शब्दों में विरोध करने की। कही न कही जाने अनजाने में हमारे इन हरकतों से घर के भीतर हँसता-खेलता पूरा परिवार ही नदारद व चिंतित हो जाता है क्योंकि उसी घर के भीतर पहले से जो तीन लड़के या लड़कियाँ होती है जिन्हें काफी बेसब्री से इंतजार रहता है एक नए साथी का जिसके साथ वह खेल-कूद सके और खूब सारा मस्ती कर सके। उन सारी उम्मीदों का हम गला भी घोट देते है और साथ ही साथ उनके भी दिमाग में विरासत रूप में “तेंतर” नाम का एक जहरीला बीज बो देते है जो आने वाले भविष्य में अंधविश्वास रूपी साँप को पोषित करता है।

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