अपना-अपना लोकतंत्र

-शशिकांत सिंह शशि-

अंग्रेज हमें जो लोकतंत्र दे गये। उसे हमने संभाल कर रखा है। लोकतंत्र ही नहीं कायदे-कानून, फैशन, रीति-रिवाज और दरबारी ठाठ सब सलामत है। लोकतंत्र को तो हवा भी नहीं लगने दी। जस का तस संविधान में रख दिया। चुनाव के दिनों में निकाला प्राण प्रतिष्ठा की और फिर रख दिया लाल कपड़े में लपेट कर। लाल कपड़े में लपेटने के अपने फायदे हैं। वह विषय तर्कातीत है जो लाल कपड़े में लपेटी गई हो। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है। उसका आकार बढ़ता ही जा रहा है। एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों का लोकतंत्र है। ईश्वर ने चाहा तो वह दो सौ पच्चीस करोड़ लोगों का हो जायेगा। बड़े आकार के कारण भी हमारे यहां लोकतंत्र तर्कातीत है। हमारे मिथकीय पात्र अपने आकार की वृद्धि के कारण भी पूजे जाते हैं। इतिहास गवाह है कि हनुमान जी और सुरसा जी में आकार की ही लड़ाई हुई थी। कृष्ण ने कौरवा सभा से लेकर कुरूक्षेत्र तक में लोगों को समझाने के लिए विराट रूप धारण कर लिया था। हमारे यहां आकार को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। मूल बात यह कि लोकतंत्र क्या है? इस पर सेमिनार होते हैं जिसमें विद्वान हिस्सा लेते है। चाय-पकौड़ों के बाद भाषण होते हैं। अंधों के हाथी की तरह इसका रूप आजतक स्पष्ट नहीं हो सका। जिसके हाथ में लोकतंत्र का जो रूप आया उसे पकड़कर पूजने लगा। हमने भी अक्ल भिड़ाई और दो-चार हिस्से खंगाल कर लाया। जनहित में जारी है-

नेता का लोकतंत्र-चुनाव महापर्व है। वोट देना जनता का महाकर्त्तव्य है। यदि जनता चुनावों में हिस्सा नहीं लेती तो वह देशद्रोह कर रही है। उन्हें अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए चुनावी प्रक्रिया को बाधित करने का कोई हक नहीं है। उनको अपने मानवीय अधिकारों के लिए कभी भी चुनावों को ढ़ाल नहीं बनाना चाहिए। इससे लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। वे चाहें तो नेता के सामने रोये-गिड़गिड़ायें रोड, पानी, बिजली के लिए। सुरक्षा तो कदापि ने मांगे। पुलिस तो नेताओं के पीछे संगीन ताने घूम रही है। गांव-मुहल्लों में कहां से आयेगी। लोकतंत्र को संभालकर रखना नेताओं का परम कर्त्तव्य हैं। इसके लिए जरूरी है कि चुनाव नियमित हों। सांसद और विधायक जीतते रहें। जीतने वाले नहीं चाहते कि कभी हारें। हारने वाले नहीं चाहते कि कोई जीते।

नेता चुनाव में उतरते है तो गीता का ज्ञान धारण कर लेते है। उनके लिए साधन का नहीं साघ्य का महत्व होता है। अपने सामने चाचा, ताऊ, मामा, दादा किसी को देखकर विचलित नहीं होते। ऐन चुनाव के वक्त भी कौरव दल के सैनिक पांडव दल में जा सकते हैं। किसी परिवार का मुखिया पांडव दल में होगा तो उसके शेष सदस्य कौरव दल में। कोई इस शर्त्त पर विपक्षी खेमें की मदद करेगा कि उसे हथियार उठाने के लिए न कहा जाये अर्थात उसका नाम उजागर नहीं होगा। संसद भवन लोकतंत्र का मंदिर है । इसमें चुने गये भगवान रहते हैं। भगवान के आपस में लड़ने, जुत्तम-पैजार करने या संसद की कारवाई बाधित करने से लोकतंत्र पुष्पित-पल्लवित होता है। यदि किसी अन्ना हजारे ने कभी कोई टिप्पणी कर दी तो लोकतंत्र बीमार हो जायेगा। खतरे में पड़ जायेगा। नेता के पास चुनावों का गणित होता है। राजपूत अमुक संसदीय क्षेत्र में बीस प्रतिशत हैं। बाभन हैं पंद्रह प्रतिशत, चमारों की संख्या अधिक है, लगभग चालीस प्रतिशत तो वही हैं। अर्थ स्पष्ट है कि चमार कैंडिडेट देना होगा।

जनता का लोकतंत्र-जनता गांवों में रहती हैं। गांवों का लोकतंत्र जमींदार साहब के दलान में रहता है। कोई भी प्रत्याशी आये उसे जमींदार साहब के दरवाजे पर हाजिरी देनी होती है। वहां वह लोकतंत्र के गले मिलता है। ग्रामीण भी वहीं आ जाते हैं। जमींदार साहब घोषणा करते हैं कि अमुक दल अत्यंत देशभक्त है। वोट उसी को देना है। ग्रामीण खुश हो जाते हैं कि सोचने से बच गये। जमींदार साहब खुश कि जेब में बीस हजार नकद आ गयें। मालिक की दलान में जो नहीं आते य उनकी सोच कुछ इस प्रकार की होती है। सड़क तो बन ही जाती लेकिन कुर्मी को जिताने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा। उनकी संख्या ही कितनी है! दाल में नमक के बराबर। राजपूतों को आपस में लड़ने से ही फुर्सत नहीं है। गांव-गांव में मीटिंग करके कहा गया था कि रणबहादुर सिंह को ही वोट दिया जाये लेकिन ससुरे माने ही नहीं। शूद्रों में एकता है एकमुश्त वोट दे दिये कुर्मी को। वह जीत गया। अब बनवा लो रोड और ले लो बिजली।

कलुआ नेताजी की जीप चलाता है। वह अपने परिवार समेत उन्हें वोट देगा। उसे उम्मीद है कि इस बार ब्लॉक में चपरासी की नौकरी उसके बेटे को मिल जायेगी। रधिया विधायक जी के घर झाड़ू-पोचा करती है। वोट तो उन्हें देगी ही उसे दस सालों से अपने लिए एक जमीन का टुकड़ा मिलने की उम्मीद है। आखिरकार उसका अपना भी मकान हो। रिक्शावाहक रामखेलावन बीड़ी पीते हुये सोच रहा है कि भोट तो किसी को भी डाल देंगे लेकिन उस दिन रिक्शा नहीं चला पायेंगे। लाला सुंदरदास चुनावों का मजाक उड़ाते हुये तुलसी दास को कोट कर रहे हैं-कोऊ नृप होये हमें का हानि। सब लूट ही रहे हैं। ससुरे ईमानदार होते तो राजनीति में जाते ही क्यों।

अधिकारी का लोकतंत्र-कल्कटर सबसे बड़ा अधिकारी है। उसे यह अधिकार हासिल है कि किसी भी अपने नीचे के अधिकारी की मां-बहन कर सकता है। तू-तड़ाक करके छोड़ दे तो समझों साहब का मूड ठीक है। अधिकारी संसार में किसी से नहीं डरता सिवा कोर्ट के नोटिस के। जमाना गया जब अधिकारी नेताओं से डरते थे। एक बार यदि साब ने फाइल पर अंगद पांव रख दिया तो सिवा धन के किसी के नहीं सुनते। दिल्ली से चली फाइल हो या पटना से, रहेगी तो साहब के ही दराज में। यूं समझें कि लोकतंत्र साहब के दराज में रहता है। वहां अतिथि की हैसियत से नहीं कैदी के तौर पर रहता है। मनरेगा हो या धन-जन साहब की मर्जी के बिना सांस भी नहीं ले सकता।

अंग्रेज गये तो अपने इस्पात की दीवार को छोड़ गये। आम आदमी क्या आम नेता, अभिनेता, गुंडा या उद्योगपति भी साहब के दर्शनों को तरस जाये। लोकतंत्र पर सरकार टिकी है और सरकार टिकी है साहब के मूड पर। ऐसा नहीं कि अधिकारी अलोकतांत्रिक होते है। दरअसल उन्हें भूत-भविष्य और वर्त्तमान तीनों को पलक झपकते जान लेना होता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे एवमस्तु किये और सारे काम हो गये। चुनाव के दिनों में तो महीनों तक मीटिंग लेते-लेते खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती। एक -एक बूथ की व्यवस्था करते-करते साहब का वजन आधा रह जाता है। जनतंत्र उनके लिए तो जी का जंजाल ही है।

बुद्धिजीवी का लोकतंत्र-लोकतंत्र मानव को मानव से जोड़ने वालीय असहायों को सहायता देने वाली एकमात्र विश्वसनीय शासन व्यवस्था है। बुद्धिजीवी आलेख, कहानियां, कविताएं, आदि लिखेगा। चित्र बनायेगा। रंगमंच पर लोकतंत्र के पक्ष में प्रस्तुति देगा लेकिन वोट नहीं देगा। वह दर्शन की मुद्रा में आकाश की ओर देखकर सोचता है कि नागनाथ हो या सांपनाथ बदलने वाला क्या है? गुंडे-मवालियों को बोलबाला है राजनीति में, वोट दिया किसको जाये? पॉलटिक्स इज ऐ डर्टी गेम। समाज को जागृत करना बुद्धिजीवी का कर्त्तव्य है कि चुनावों को महापर्व माने बूथ पर जाये। मतदान करे। समाज जाये, उसे छोड़ दे घर में नई कविता लिखने के लिए। व्यवस्था को कोसने के लिए। वह घर मे बैठा कूढ़ेगा।

(साभार: रचनाकार से प्रकाशित)

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