दुखी रहना तो एक मानसिक बीमारी है

सच तो यह है कि दुख कोई स्थूल वस्तु या स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता। दुखी रहना तो एक मानसिक बीमारी है। दुख का संबंध मन से है। मन को निर्मल बनाएं, मन में खुशियां बटोरिए। छोटी-छोटी चीजों में खुशियां तलाशें। हमेशा मन को एक अन्य पात्र या चरित्र समझकर उसे समझाएं कि आपके पास खुश होने के अनेक कारण हैं। धीरे-धीरे मन को हर स्थिति में खुश रहने की आदत पड़ेगी तो स्वतः दुख का भाव तिरोहित हो जाएगा।

जैसे बर्तन में पहले से दूध रखा हो तो अन्य तरल पदार्थ उसमें नहीं रखा जा सकता। वैसे ही मन में आशा, आनंद और उत्साह का भाव भरा हो तो निराशा और दुख वहां ठहर ही नहीं सकता, किंतु मनुष्य इसके ठीक उलटा दुखी होने का बहाना खोजता रहता है। मनुष्य दुखी इसलिए है कि संसार उसके अनुकूल नहीं है। हम मानव हमेशा सब कुछ अपने अनुकूल चाहते हैं, वैसा नहीं होने पर हम दुखी हो जाते हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि हम इस संसार के मालिक नहीं हैं। हम तो कुछ दिनों के लिए पृथ्वी पर अतिथि बनकर आए हैं। अतिथि की बात घर में नहीं चलती। अतिथि को मेजबान के अनुसार रहना पड़ता है, किंतु जब अतिथि स्वयं सांसारिक स्थितियों को मन से स्वीकार कर बदलने का प्रयास नहीं करता है तो दुखी हो जाता है। जीवन एक समझौते का नाम है। इसलिए सामंजस्य स्थापित करके जीने में ही भलाई है।

एक छोटी-सी कामना की पूर्ति होते ही दूसरी उससे बड़ी कामना स्वतः पैदा हो जाती है। जिस तरह आग को आग से नहीं बुझाया जा सकता उसी तरह कामना को कामना से शांत नहीं किया जा सकता। चाह की भूख ऐसी है, जिसे जितना तृप्त करने का प्रयास किया जाए, वह उतनी ही बलवती होती जाती है। कामना की एकाध कड़ी पार करते ही मनुष्य अनंत कामनाओं के चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है। कामना और वासना, दो ऐसे मनोवेग हैं जो कभी शांत नहीं होते। आज तक धन, पद या शक्ति की कामना और वासना की पूर्ति से कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआ है। फलतः मनुष्य जीवन भर दुखी बना रहता है। इच्छा या कामना की भूख दरअसल संसार से अनुरक्ति के कारण ही पैदा होती है। मनुष्य अज्ञानवश संसार को स्थायी घर समझ लेता है। फिर जीवन में ऐसे-ऐसे उपाय करने लगता है कि मानो सदा यहीं बस जाना है।

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