प्रतिकूल
–दीप्ती-
दिल है जो पुकारता नहीं, और मन है कि मानता नहीं,
कभी मौहब्बत की हद है, कभी हद से मौहब्बत,
जाने इसकी परेशानी कोई समझता क्यूं नहीं,
कभी समय का इन्तजार है, कभी इन्तजार ही समय है,
ये समय से कोई पूछता क्यूं नहीं,
दिल है जो पुकारता नहीं, और मन है कि मानता नहीं,
कभी परीक्षा की प्रतिक्षा है, कभी प्रतिक्षा ही परीक्षा है,
प्रतिक्षा को परीक्षा से मोह क्यूं नहीं,
पहले रितुओं में शरद का कहर, फिर राजा कहलाते बसन्त का पहर,
मौसम का मन ठहराव लाता क्यूं नहीं,
दिल है जो पुकारता नहीं, और मन है कि मानता नहीं,
सूर्य देता अग्नि का ताप, चन्द्रमा है शीतलता की पहचान,
जब एक ही आंगन में क्रीडा करते, तो समानता रखते क्यूं नहीं,
काला कौआ, काली कोयल, पुकारते जब हो भूख और प्यास,
हंस, बगुले का भी रंग समान, फिर विचारों में क्यूं भेद-भाव,
और पक्षियों जैसा प्रेम, ये मानुष से क्या करते नहीं?
दिल है जो पुकारता नहीं, और मन है कि मानता नहीं,
जीवन की व्यथा ही अजीब है,
कभी समय का दोष, कभी समय को दोष,
क्यूं ग्लानि अपनी कोई मानता नहीं,
कभी उत्कण्ठा को समझा नहीं, कभी व्यथा की कथा भी सुनी नहीं,
कभी छोडा नहीं आंगन अपना,
फिर कह दिया गलियारों में कभी देखा नहीं,
दिल है जो पुकारता नहीं, और मन है कि मानता नहीं,