मां, पर पीर तो होती होगी

-अरुण तिवारी-

गांव की सबसे बङी हवेली

उसमें बैठी मात दुकेली,

दीवारों से बाते करते,

दीवारों से सर टकराना,

दीवारों सा मन हो जाना,

दूर बैंक से पैसा लाना,

नाज पिसाना, सामान मंगाना,

हर छोटे बाहरी काम की खातिर

दूजों से सामने गिङगिङ जाना,

किसी तरह घर आन बचाना,

शूर हो, मजबूर हो मां,

पर पीर तो होती होगी।

देर रात तक कूटना-पछोरना,

भोर-सुबेरे बर्तन रगङना,

गोबर उठाना, चारा लगाना,

दुआर सजाना, खेत निराना,

अपनी खातिर खुद ही पकाना,

दर्द मचे, तो खुद ही मिटाना,

थकी देह, पर चलते जाना,

नही सहारा, न ही छुट्टी

मरे हुए सपनों की जद में

मजदूरी सी करते जाना,

उलटी गिनती गिनते जाना,

हाल पूछो तो ठीक बताना,

शूर हो, मजबूर हो मां,

पर पीर तो होती होगी।

भरी कोख की बनी मालकिन,

बाबूजी का छोङ के जाना,

फिर संतानों का साथ न पाना,

थकी देह पर कहर ढहाना,

झूठे-मूठे प्रेम दिखाना,

सूनी रातें, कैद दिनों में

चैकीदारी सौंप के जाना,

संतानों का कभी तो आना,

कभी बहाना, कभी बहलाना,

मोबाइल से घी पिलाना,

भरे कुनबे का यह अफसाना,

शूर हो, मजबूर हो मां,

पर पीर तो होती होगी।

 

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