गेहूं निर्यात पर पाबंदी

भारत सरकार ने अचानक और तुरंत प्रभाव से गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। यह सामयिक, कारगर और राष्ट्रीय निर्णय है। राष्ट्रीय संदर्भ इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम 2005-07 के दौरान गेहूं का संकट झेल चुके हैं। तब भारत को 71 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा गेहूं का आयात करना पड़ा था। भारत ने कई देशों को गेहूं निर्यात भी किया था, लेकिन बाद में सार्वजनिक वितरण प्रणाली और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए गेहूं की उपलब्धता कम पड़ी। स्टॉक करने वाले उद्योगपतियों ने भी सरकार को खुलासा नहीं किया कि उनके गोदामों में कितना गेहूं उपलब्ध है। हार कर गेहूं का आयात करना पड़ा। आयात की मात्रा भी काफी थी और गेहूं महंगे दामों पर खरीदना पड़ा था। तब न तो रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे वैश्विक हालात थे और न ही भारत में खाद्य सुरक्षा कानून था। इस कानून के तहत औसत नागरिक की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है। अब कोरोना-काल से प्रधानमंत्री गरीब अन्न योजना के तहत 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज भी बांटा जा रहा है। यह योजना फिलहाल सितंबर, 2022 तक चलनी है। यदि इसे मार्च, 2023 तक विस्तार दिया गया, तो गेहूं का संकट पैदा हो सकता है।

 गोदामों में गेहूं की उपलब्धता कम पड़ सकती है। भारत सरकार किसी भी तरह का जोखि़म नहीं उठा सकती थी, लिहाजा तुरंत निर्यात पर पाबंदी चस्पा करनी पड़ी। हालांकि सरकार का दावा है कि गोदामों में गेहूं का पर्याप्त भंडार है। हम इस दावे को कबूल कर भी लें, तो भारत 69 देशों को गेहूं का निर्यात कर रहा है, हालांकि मई 2022 में अभी तक 14.63 लाख मीट्रिक टन गेहूं का निर्यात 2022-23 के दौरान किया गया है। केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने बीते माह खुलासा किया था कि भारत इस बार 100 लाख टन से अधिक गेहूं का निर्यात करेगा। विदेशों में सरकारी प्रतिनिधिमंडल भी भेजे गए थे कि भारत गेहूं उपलब्ध कराने की स्थिति में है, लेकिन अचानक सभी समीकरण और लक्ष्य बिगड़ गए और सरकार को गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगानी पड़ी। सिर्फ वे कंपनियां ही निर्यात कर सकेंगी, जिन्हें लेटर ऑफ क्रेडिट (एलओसी) प्राप्त हो चुका है। वे कंपनियां कौन-सी हैं और कितना गेहूं, किन देशों को निर्यात करेंगी, इसका खुलासा सरकार ने नहीं किया है। मौजूदा संकट की मूल वजह यह है कि मौसम की अप्रत्याशित मार, समय से पहले ही भयंकर गर्मी और लू, ने गेहूं की पिछौती फसल को बुरी तरह प्रभावित किया। गेहूं का दाना ही लगभग मर गया। उत्पादन कम हुआ, तो सरकार ने अपनी खरीद को करीब 440 लाख मीट्रिक टन से घटाकर 195 लाख टन कर दिया। प्रधानमंत्री अन्न योजना में गेहूं के बजाय चावल कर दिया गया। ओडिशा में तो 100 फीसदी चावल ही बांटा जा रहा है। जिन एक दर्जन राज्यों को अनाज की आपूर्ति की जानी थी, उसे भी 50 फीसदी घटा दिया गया है अथवा फिलहाल रोक दिया गया है। खरीद का जो लक्ष्य तय किया था, उसमें भी करीब 165 लाख मीट्रिक टन की ही सरकारी खरीद हो पाई है।

 गेहूं मंडियों में न के बराबर भेजा जा रहा है, क्योंकि कंपनियां और व्यापारी खेत से ही गेहूं खरीद रहे हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक के दाम दिए जा रहे हैं। किसान भी खुश होंगे कि एमएसपी से ज्यादा दाम मिल रहे हैं, लेकिन निर्यात पर पाबंदी के बाद कुछ किसान संगठन नाराज भी हैं। उनका मानना है कि इस फैसले से गेहूं के दाम घटेंगे, जिससे किसानों को नुकसान होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि आज भारत को गेहूं आयात करना पड़ा, तो वह चाहे, तो कटोरा लेकर मांग ले, लेकिन गेहूं नहीं मिलेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं का बेहद गंभीर संकट है। रूस दुनिया में गेहूं का सबसे बड़ा निर्यातक रहा है। यूक्रेन भी मुख्य निर्यातक देशों में है। उनसे गेहूं की आपूर्ति संभव नहीं हो रही, तो देश भारत की ओर देखने लगे हैं। सरकार का यह बेहद सामयिक और अच्छा फैसला है कि तुरंत पाबंदी लगा दी गई। इससे गेहूं देश के बाज़ार में उपलब्ध होगा, तो गेहूं के साथ आटे की कीमतें भी कम होंगी। यह भी देशहित में है। अब यह फैसला कितना कारगर साबित होता है, कुछ ही दिनों में यह साफ दिखाई देने लगेगा। हाल के दिनों में आटे की कीमतें भी बढ़ने लगी हैं। आम लोग इसको लेकर नाराज होने लगे हैं। अगर बाजार में गेहूं की आवक कम होगी, तो स्वाभाविक रूप से आटा महंगा ही होगा। इसलिए बाजार में गेहूं की आवक बढ़ाना लाजिमी हो गया है। तभी लोगों को पर्याप्त मात्रा में आटा मिल सकेगा। बाजार में गेहूं की आवक बढ़ाकर आटा की कीमतें भी नीचे लाई जा सकती हैं। इसलिए यह निर्णय आम जनता के हित में है।

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