महंगाई का बुलडोजर

बीते कई दिनों से बुलडोजर चर्चा में है। अभी तक बुलडोजर अवैध दुकानों, खोखों, रेहड़ी-खोमचों से लेकर घरों तक को ढहाते रहे हैं। यह राजनीतिक के साथ-साथ सांप्रदायिक और उन्मादी मुद्दा भी बन गया है। मुस्लिम नेता ओवैसी ने यहां तक धमकी दी है कि यदि 20 करोड़ मुसलमानों का एक छोटा हिस्सा कट्टरपंथी, अतिवादी हो गया और सड़क पर उतर आया, तो क्या उस सुरक्षा-चुनौती से निपटने में देश सक्षम है? कोई मौलाना तौक़ीर रज़ा हैं, जिन्होंने लगभग ऐसी ही धमकी दोहराई है। उनके निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी भी हैं। मौलाना ने प्रधानमंत्री से खामोशी तोड़ने और व्यवस्था को दुरुस्त करने का आग्रह भी किया है। ये इस्लामी अतिवाद के कुछ उदाहरण हैं। बुलडोजर के नेपथ्य में यही अतिवाद स्थापित किया जा रहा है। बुलडोजर को सांप्रदायिकता का पर्याय मान लिया गया है।

यह समग्रता में हकीकत नहीं है, लेकिन इनसे अलग गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई के बुलडोजर इतने अतिवादी हैं कि औसत आदमी की जि़ंदगी ध्वस्त कर दी है। सांप्रदायिक उन्माद और मज़हबी हिंसा पर शोर मचाने वाले महंगाई के बुलडोजर का उल्लेख नहीं करते। क्या वह जमात गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई की कुचलियों से परेशान और त्रस्त नहीं है? जब भाजपा और मोदी सत्ता हासिल करने को सक्रिय थे, तो ‘महंगाई डायन’ का जुमला प्रचार का बुनियादी मुद्दा था। बेशक कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान मुद्रास्फीति की दर दहाई में थी। अब मोदी सरकार के 8 साला कार्यकाल के दौरान औसतन 5-6 फीसदी रही है, लेकिन अर्थशास्त्र की यह भाषा आम आदमी नहीं जानता। उससे पूछा जाए कि महंगाई कितनी है और वह उससे कितना प्रभावित है? तो उसकी हाहाकार की चोट बुलडोजर से भी ज्यादा घातक होगी! बीते दिनों खुदरा महंगाई सूचकांक 6.95 फीसदी था और थोक की दर 14.55 फीसदी रही। ये दरें अभी तक सबसे ज्यादा हैं। खुदरा की टोकरी में 299 वस्तुएं रखी जाती हैं। उनके आधार पर ही महंगाई दर तय की जाती है। बीते 7 सालों के दौरान उनमें से 236 वस्तुओं के दाम पेट्रो पदार्थों से भी अधिक बढ़े हैं। यह महंगाई 79 फीसदी से भी ज्यादा है। हमारी सियासत इस वृद्धि पर क्यों नहीं चीखती और सरकार को कटघरे में क्यों नहीं घसीटती? सरसों के तेल, खाद्य तेल, मूंगफली के तेल, प्याज आदि सब्जियों से लेकर नर्सिंग होम सेवा के चार्जेज तक करीब 71.61 फीसदी महंगे हुए हैं।

ट्यूशन फीस, दवाएं, रसोई गैस, सीएनजी, पीएनजी आदि की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। करीब 60 लाख सूक्ष्म, लघु उद्योग बंदी के कगार पर हैं। उन्होंने बैंकों से जो कर्ज़ लिए थे, वे चुकाए नहीं जा सके, नतीजतन एनपीए घोषित किए जा रहे हैं। सरकार हर बार दलील देती है कि 80 करोड़ गरीबों को निःशुल्क अनाज मुहैया कराया जा रहा है। ऐसे अनाज के अलावा घर, उसमें बिजली, पानी, दालें, घी, मसाले और बच्चे की फीस, अन्य खर्च भी जरूरी हैं। यदि आम आदमी की आमदनी नहीं बढ़ेगी या नौकरी, रोज़गार छिन जाएंगे, तो क्या सरकारी अनाज का फक्का मार कर जिया जा सकता है? सरकार अपनी परियोजनाओं की आड़ में छिप कर दलीलें मत दे। मानते हैं कि बाज़ार में वस्तु और सेवा महंगी होंगी, तो उपभोक्ता को भी महंगी ही मिलेंगी। सरकार हर स्तर पर सबसिडी देगी, तो खुद दिवालिया हो जाएगी। यदि कोरोना महामारी के बावजूद देश में 132 चेहरों ने 40 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई की है, तो उसका आधार क्या है?

महंगाई उस जमात के लिए बेमानी है, लेकिन सरकार ऐसे चेहरों से वेल्थ टैक्स ज्यादा क्यों नहीं वसूलती? सरकार को इस साल विभिन्न करों और जीएसटी आदि से करीब 27 लाख करोड़ रुपए की आमदनी हुई है। यह अभूतपूर्व है और बजट अनुमानों के पार भी है। सरकार इस पैसे में से आम आदमी को कुछ धन मुहैया करा सकती है, ताकि बाज़ार में मांग तो बढ़े। देश की बहुसंख्यक जनता महंगाई से परेशान है। लोग अपनी बचत को तोड़ कर गुज़ारा करने को विवश हैं। सरकार खामोश है या दाम बढ़ाती जा रही है। सरकार इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है। प्रधानमंत्री को तो गरीबी और अभावों का एहसास भी है और अनुभव भी रहा है। वह ऐसा रास्ता क्यों नहीं निकालते, ताकि औसत नागरिक महंगाई रूपी बुलडोजर की मार खाकर ध्वस्त न हो। दरअसल महंगाई से सबसे ज्यादा त्रस्त मध्यम वर्ग है। यह वह वर्ग है जो अपने बल पर जीता है और जिसे सरकार कोई सुविधा नहीं देती।

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