बच्चों को कैसा साहित्य परोस रहे हैं हम?

-योगेश कुमार गोयल-

जब भी हम बच्चों के बारे में कोई कल्पना करते हैं तो सामान्य रूप से एक हंसते-खिलखिलाते बच्चे का चित्र हमारे मन-मस्तिष्क में उभरता है लेकिन कुछ समय से बच्चों की यह हंसी, खिलखिलाहट और चुलबुलापन जैसे भारी-भरकम स्कूली बस्तों के बोझ तले दबता जा रहा है। पहले बच्चों का अधिकांश समय आउटडोर गेम्स अथवा एक्टिविटीज में ही बीतता था, हमउम्र बच्चों के बीच खेलकर उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास भी तेजी से होता था लेकिन अब बच्चों के खेल घर की चारदीवारी में ही सिमटकर रह गए हैं। कोरोना महामारी के कारण लंबे समय से बंद स्कूलों ने तो बच्चों के मन-मस्तिष्क पर काफी बुरा असर डाला है। ऑनलाइन पढ़ाई के कारण अधिकांश बच्चे सारा समय घर की चारदीवारी में कैद होने के कारण अब टीवी और मोबाइल फोन के आदी हो गए हैं। नतीजा, इंटरनेट पर ऊलजलूल कार्यक्रम देखकर और हिंसात्मक गेम खेलकर बच्चों में हिंसात्मक व्यवहार और आक्रामकता बढ़ रही है। तरह-तरह की बीमारियां भी बचपन में ही बच्चों को अपनी चपेट में लेने लगी हैं।

जहां तक बच्चों के प्रति हमारे समाज की जिम्मेदारियों की बात है तो बाल साहित्य का मामला हो या बाल फिल्मों का, हमारे यहां बच्चे सदैव ही उपेक्षित रहे हैं। प्रेम कहानियों और भूत-प्रेतों पर आधारित फिल्मों की तो हमारे यहां भरमार रहती है लेकिन कोई भी फिल्मकार अपने देश की बगिया के इन महकते फूलों की सुध लेना जरूरी नहीं समझता। जहां ‘होम अलोन’, ‘चिकन रन’ और ‘हैरी पॉटर’ जैसी विदेशी बाल फिल्में विदेशों के साथ-साथ भारतीय बच्चों द्वारा भी बहुत पसंद की जाती रही हैं, वहीं हमारे यहां ऐसी फिल्मों का सर्वथा अभाव रहता है, जिनसे बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन हो और उन्हें एक नई प्रेरणा एवं दिशा मिल सके। प्रेमकथा पर आधारित या हिंसा और अश्लीलता से भरपूर फिल्में बनाकर मोटा मुनाफा कमा लेने की प्रवृत्ति ने ही अधिकांश फिल्मकारों को बाल फिल्में बनाने की दिशा में निरुत्साहित किया है।

कुछ ऐसा ही हाल बाल साहित्य के मामले में भी है। बच्चों के मानसिक और व्यक्तित्व विकास में बाल साहित्य की बहुत अहम भूमिका होती है। बच्चों में आज नैतिक मूल्यों का जो अभाव देखा जा रहा है, उस अभाव को प्रेरणादायक बाल साहित्य के जरिये आसानी से भरा जा सकता है किन्तु अगर कोई बच्चा आज स्कूली किताबों से अलग कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना भी चाहे तो उसे समझ ही नहीं आता कि आखिर वह पढ़े तो क्या पढ़े क्योंकि बच्चों के लिए सार्थक, सकारात्मक और प्रेरक साहित्य की कमी अब बहुत अखरने लगी है। आज जो बाल साहित्य रचा जा रहा है, वह बाल मन, बाल समझ या बाल मानसिकता से काफी दूर नजर आता है। बच्चों के लिए ऐसे स्तरीय बाल साहित्य का सर्वथा अभाव खटकता है, जिसके जरिये बाल मन के सवालों के जवाब रचनात्मक साहित्य के जरिये बच्चों को रोचक तरीके से मिल सकें और वे अनायास ही ऐसे साहित्य की ओर उन्मुख होने लगें। ऐसे स्तरीय बाल साहित्य की कमी के भयावह दुष्परिणाम बच्चों में बड़ों के प्रति सम्मान की कम होती भावना और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ते जाने के रूप में हमारे सामने आने भी लगे हैं।

विदेशी साहित्यकारों की ‘हैरी पॉटर’ जैसी किताबें, जो खासतौर से बच्चों को ही ध्यान में रखकर लिखे गए जादुई कारनामों की वजह से दुनियाभर के बच्चों को आकर्षित कर सकती हैं, भारतीय बच्चों को भी अपना दीवाना बनाने में सक्षम हो जाती हैं लेकिन हमारे यहां ऐसा बाल साहित्य न के बराबर ही देखने को मिलता है, जिसके प्रति बच्चे इतने उत्साह के साथ आकर्षित हो सकें। छोटे पर्दे पर प्रसारित हो रहे कार्टून चैनलों की बात करें तो अधिकांश कार्टून चैनल्स की कहानियां ऐसी होती हैं, जिनसे बच्चों को कोई अच्छी सीख मिलने के बजाय उनमें आक्रामकता की भावना ही विकसित होती है। मनोवैज्ञानिक डॉ. वंदना प्रकाश कहती हैं कि मारधाड़ वाली फिल्मों और विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के साथ-साथ ऐसे कार्टून नेटवर्क भी बच्चों में आक्रामकता बढ़ाने में ही अहम भूमिका निभा रहे हैं। इसके अलावा माता-पिता के बीच आए दिन होने वाले झगड़े भी बच्चों का स्वभाव उद्दंड एवं आक्रामक बनाने के लिए खासतौर से जिम्मेदार होते हैं।

आज हम बच्चों के लिए कैसा बाल साहित्य परोस रहे हैं, इस बारे में एक वरिष्ठ बाल साहित्यकार कहते हैं कि आजकल बच्चों के लिए जो किताबें या पत्रिकाएं मिलती हैं, उनकी छपाई, सफाई और चित्रांकन तो बहुत सुंदर व आकर्षक होता है तथा ये पत्रिकाएं बहुधा रंगीन होती हैं, जिनके दाम भी बहुत ज्यादा नहीं होते लेकिन इनकी सामग्री उच्चस्तरीय नहीं होती। इन पत्रिकाओं में बाल पाठकों में नैतिक गुणों का विकास करने वाली सामग्री का अभाव अक्सर अखरता है। वह कहते हैं कि बच्चों के लिए छपने वाले अधिकांश सचित्र कॉमिक्स में प्रायः हास्य व्यंग्य से प्रसंग उपस्थित किए जाते हैं किन्तु ये प्रसंग बहुधा भौंडे किस्म के होते हैं। ये हमें हंसा तो देते हैं लेकिन संयत और अच्छे आचरण की ओर ले जाने वाले नहीं होते। एक उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि एक कॉमिक्स में चित्रांकन करके बताया गया है कि एक पंडित जी बाजार जा रहे हैं और एक दीवार पर कुछ शरारती बच्चे बैठे हैं, जो छतरी की डंडी या किसी तार से पंडितजी की चोटी को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह दृश्य हंसाने के लिए तो उपयुक्त है किन्तु बाल पाठकों के मन में बड़ों के प्रति अनादर की भावना ही भरता है।

एक निजी स्कूल की प्रिंसिपल सुधा वर्मा कहती हैं कि कुछ वर्ष पहले तक माता-पिता इस बात का खास ध्यान रखते थे कि उनका बच्चा क्या पढ़ रहा है? उस समय बच्चों द्वारा उपन्यास पढ़ना तो बहुत ही बुरा माना जाता था। सजग माता-पिता तब इस बात का खासतौर से ध्यान रखते थे कि कहीं बच्चा लुक-छिपकर उपन्यास तो नहीं पढ़ रहा है? सुधा कहती हैं कि अब यह बात न तो माता-पिता देखते हैं और न ही शिक्षक कि बच्चा क्या पढ़ रहा है। एक कॉलेज प्रोफेसर के मुताबिक छोटी उम्र में ही बच्चों पर किताबों का बोझ अब इस कदर बढ़ गया है कि उन्हें अब पहले की भांति खेलने-कूदने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। बच्चों के लिए छपने वाली पत्रिकाओं के बारे में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि अब बाजार में अधिकांश ऐसी पत्रिकाएं ही नजर आती हैं, जिनके प्रकाशकों का मूल उद्देश्य इनके जरिये सिर्फ पैसा कमाना ही दिखाई देता है, उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि इन पत्रिकाओं का बाल पाठकों के मनोमस्तिष्क पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है? कुल मिलाकर देखा जाए तो बच्चों के प्रति हम व हमारा समाज सही तरीके से अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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